PATNA (MR) : रेणु साहित्य के बिना पूरे देश-दुनिया का हिंदी जगत और साहित्य जगत अधूरा है। मैला आँचल के रचयिता फनीश्वर नाथ रेणु के साहित्य पर लेखक अनंत लगातार काम कर रहे हैं। वे रेणु साहित्य के अध्येता हैं। उनकी दो-तीन साल पहले आयी किताब ‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ देशभर में काफी चर्चित रही। लेखक अनंत ने रेणु साहित्य से जुड़े बिहार के ताजा साहित्यिक हालात पर दो दिग्गज नेताओं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नाम खुला पत्र लिखा है। यहां पढ़िए अक्षरशः पूरा पत्र।
साहित्य अकादमी दिल्ली और भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक सेमिनार फणीश्वरनाथ रेणु जैसे वैश्विक रचनाकार की लेखनी के लालित्य और शान के खिलाफ है। इसके गहरे निहितार्थ हैं। दरअसल, इस विमर्श का विषय साहित्यिक-अकादमिक नहीं, बल्कि हासा-भासा (जमीन और भाषा) की लूट की राजनीति से प्रेरित है। अस्मिताई फसाद पैदा करने वाला यह विषय रेणुजी को ‘आँचलिकता’ से भी तंग ‘मिथिलांचिकता’ के दायरे में कैद करता है और उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँचाता है। वैचारिक दृष्टिकोण से देखें तो यह मंडल पर कमंडल और समाजवाद पर ब्राह्मणवाद का हमला है। क्योंकि, यह कार्यक्रम बीपी मंडल की धरती पर हो रहा है और रेणु समाजवादी साहित्य निर्माता हैं। मेरा प्रश्न यह है कि आखिर इसका खलनायक कौन है ?
सर्वविदित है कि रेणु साहित्य कई स्थानीय बोली, भाषा, संस्कृति और सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों का संगम है। रेणु साहित्य के केंद्र में नेपाल, कोसी, अंग और मगध की धरा मुख्य रूप से विद्यमान है, जो कि ग्रामीण भारत का प्रतिनिधित्व करता है। यह देखा जा सकता है कि अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ के कथानक से मिथिला को रेणुजी ने ही बाहर रखा है। ‘मैला आँचल’ के मेरीगंज में बसे ब्राह्मण मिथिला की अस्मिता के प्रतीक नहीं है। बाढ़ और सुखाड़ केंद्रित रिपोर्ताज के केंद्र में भी मिथिलांचल नहीं है। फिल्म पर जो कुछ लिखा है रेणुजी ने, उसका वास्ता भी मिथिला से नहीं है। हां, यह जरूर है कि ‘परती परिकथा’ में इक्के-दुक्के पात्र मैथिली ब्राह्मण है। रेणुजी ने मैथिली में फुटकर लेखन ही किया है। उनकी एक किताब भी मैथिली में नहीं है। इसी आधार पर मैथिली भाषी रेणु को मैथिली साहित्यकार के रूप में साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं देने को वाजिब ठहराते हैं ? फिर सवाल यह उठता है कि ‘ रेणु आ मैथिली ’ विषय पर ही परिसंवाद क्यों ? सवाल यह भी है कि कोसी की धरती पर आयोजित परिसंवाद से कोसी ही गायब है, क्यों ?
रेणु साहित्य का गहरा जुड़ाव कोसी की संवेदना और सरोकार से है। इसी वजह से कोसी के कछार पर बसे अंग की माटी या उनके साहित्यिक अंचल को लोग रेणु माटी भी कहते है। मिथिला और मैथिली के लोग अगर मानते हैं कि रेणु साहित्य में उनकी वेदना-संवेदना निहित है, तो कोसी की तरह मिथिला की धरती को रेणु माटी घोषित कर दें। लेकिन यहाँ इनका उद्देश्य कोसी के कछार पर बसे अंग के हिस्से को मिथिला की माटी घोषित करना है। देश के बड़े से बड़े अकादमिक से ‘रेणु आ मैथिली’ विषयक परिसंवाद के बारे पूछा जाए कि ‘क्या यह विषय रेणुजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के लिहाज उचित है ?’ कोई भी साहित्यिक-अकादमिक व्यक्ति इसे साहित्यिक विमर्श की जगह मैथिली वर्चस्ववाद और कपोल-कल्पित ‘मिथिला राज’ की चौहद्दी बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित विमर्श की संज्ञा देगा। भाषा और साहित्य पर विमर्श के बहाने हासा अर्थात जमीन की लूट की कवायद है। दूसरे शब्दों में इसे रेणु के गाँव से लेकर अँचल तक में जबरन घुसने का आपराधिक कुकृत्य भी कह सकते हैं।
यह सर्वविदित है कि मध्यकाल के इतिहास में कहीं भी मिथिला का जिक्र नहीं है। बौद्धकाल के 14 जनपदों में किसी का नाम मिथिला नहीं रहा। मिथिला नाम का कोई क्षेत्र इतिहास में नहीं रहा, इसलिए देश के प्रमुख भाषा परिवारों में भी मैथिली को स्थान नहीं मिला है। मगही-मगधी, सौराष्ट्री, मरहट्टा, पैशाची आदि भाषा परिवारों का जिक्र है, लेकिन मैथिली इसमें शामिल नहीं है। यह इसलिए कि मैथिली का जन्म ही मगधी-मगही से हुआ है। ‘मैला आँचल’ के मेरीगंज में काली टोपी वाले (आरएसएस वाले) उस दौर में जो सर उठा रहे थे, वही आज इस देश के सरताज बने हैं। इनका ही विश्वास इतिहास में नहीं, मिथकीय आख्यानों में है। मिथिला और मैथिली वाले भी अपना जड़ मिथकीय आख्यानों में ही तलाशते हैं। मिथकीय मैजिक के आधार पर संपूर्ण संसार में अपनी छाप देखते हैं। रेणु की भाखा में ऐसी मानसिकता को ‘लरछुत’ कहते हैं। यही मानसिकता भारतीय ग्राम्य अंचल का प्रतिनिधित्व करने वाली रेणु की रचनाओं में मिथिला-मैथिली के प्रभाव की खोज करने चली है, जो की स्वतंत्र भाषा है ही नहीं। आज मिथिला-मैथिली तो कल मगही, परसों भोजपुरी, तरसों अंगिका भी अपने प्रभाव की खोज करेगी तो रेणु के गाँव और अँचल में अस्मिताओं का टकराव होगा, जिससे समाज में जहर फैलेगा। यह जहर रेणु के गाँव और अँचल के ताना-बाना तहस-नहस करेगा। रेणु के गाँव और अँचल के बिखरने का मतलब होगा देश का टूटना। सवाल है कि देश को तोड़ना कौन चाहता है ?
दुखद यह है कि इसकी प्रयोगशाला बिहार को बनाया गया है। अलग मिथिला राज की परिकल्पना वक्त-बेवक्त कुलाचे मारती भी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली इसका अगुआ बना है। भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय से संबध ‘मधेपुरा काॅलेज मधेपुरा’ का कैंपस कार्यक्रम स्थल है। कोसी के कछार पर बसे अंग के इलाका, जिसे कोसी बेल्ट या रेणु माटी कहते हैं, उसे ही बैटल फिल्ड बनाया गया है। विश्वविद्यालय के कुलपति हैं – विमलेन्दु शेखर झा, जो स्वयं मैथिल ब्राह्मण हैं। कुलपति ही उदघाटनकर्ता हैं। साहित्य में पहचान रखने वाले मैथिली साहित्यकार सह बिहार सरकार के अधिकारी तारानंद वियोगी का नाम भी मुखर वक्ता के रूप में शुमार है। तारानंद वियोगी भी स्थानीय ही हैं। मैथिली पहचान से प्यार इन्हें भी है। ऐसे में आप दोनों (मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव) समाजवादी राजनीति के अगुआ हैं। आप दोनों का ध्यान इस पत्र के माध्यम से आकृष्ट करना चाहता हूँ कि हासा-भाषा (संस्कृति व भाषा ) की लूट और अस्मिताओं के टकराव का बीज हमारे सूबे में बोया जा रहा है। फैसला आपको लेना है। यहां के समाजवादी ताने-बाने को आप दोनों से बेहतर कौन समझ सकता है।