PATNA / MUNGER (APP) : छठ लोकआस्था का महापर्व है। छठ पूजा पर देवी षष्ठी की पूजा का विधान है। गांव की बोलचाल की भाषा में षष्ठी देवी को छठी मईया भी कहा जाता है। छठ पूजा तो पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी मनायी जाती है। लेकिन लगता है बिहार का यह अपना पर्व है। इतना ही नहीं, इसका बिहार के ही औरंगाबाद और मुंगेर जिला से भी गहरा रिश्ता है। बिहार से इसका अटूट रिश्ता है। अब तो बिहार में लगभग हर घर में छठ पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि छठ पूजा पर षष्ठी देवी की विशेष पूजा-अर्चना करने से सुख-समृद्धि, धन, वैभव, यश और मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। बिहार में छठ पूजा मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है और मान्यताएं भी उतनी ही गहराई से जुड़ी हुई हैं। ग्लोबल हो चुके इस महापर्व के बारे में सबकुछ जानिए महज 5 बातों में…
1 संतान प्राप्ति की है मान्यता : छठ पूजा का महापर्व बिहार में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। 4 दिनों तक चलने वाले लोक आस्था के इस महापर्व की शुरुआत नहाय खाय के साथ होती है, जिसमें नहाय खाय, खरना, डूबते और उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है। पौराणिक बातों और मान्यताओं के अनुसार, संतान प्राप्ति को लेकर इस महापर्व के प्रति लोगों में काफी आस्था है और यह आस्था सदियों से चली आ रही है। कहा जाता है कि छठ पूजा का व्रत रखने से नि:संतान को संतान सुख की प्राप्ति होती है। साथ में परिवार की खुशहाली का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पुराणों के अनुसार, संतान को लेकर खुद देव माता अदिति ने छठी मईया का व्रत किया था। यह व्रत उन्होंने कहीं और नहीं, बल्कि बिहार के औरंगाबाद स्थित देव में ही किया था। उस समय वहां असुरों का राज था। उसी से निजात के लिए देव माता अदिति ने पुत्र प्राप्ति के लिए कड़ी तपस्या की। उनकी तपस्या से खुश होकर छठी माई ने उन्हें सर्वगुण संपन्न पुत्र होने का वरदान दिया। इसके बाद सूर्यदेव ने माता अदिति के गर्भ से जन्म लिया। इस वजह से सूर्यदेव का नाम आदित्य पड़ा और आदित्य ने ही देव सेना बनाकर असुरों का संहार किया। उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और यहां का सूर्य मंदिर देव सूर्य मंदिर कहलाता है।
2 महाभारत काल से है कनेक्शन : छठ पर्व का महाभारत काल से भी सीधा कनेक्शन है। यानी बिहार में छठ पूजा की प्रथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्यपुत्र कर्ण का संबंध बिहार के भागलपुर से माना गया है। कर्ण को दुर्योधन ने अंगदेश का राजा बनाया था। तब का अंगदेश आज का भागलपुर है। राजा कर्ण दानवीर के रूप में प्रसिद्ध थे। वे सच्ची श्रद्धा से सूर्यदेव की उपासना करते थे और तालाब या नदी के पानी में घंटों खड़ा रहकर भगवान सूर्य को अर्घ्य देते थे। कहा जाता है कि इसी अर्घ्य से खुश होकर भगवान सूर्यदेव ने महान योद्धा होने का उन्हें आशीर्वाद दिया था।
3 तब द्रौपदी ने किया था छठ : महाभारत काल से जुड़ी एक अन्य कथा है, जो पांडव की पत्नी द्रौपदी से जुड़ी हुई है। यह तो आप जानते ही हैं कि दुर्योधन ने पांडव से छल करके सारा राजपाट हड़प लिया था। जुए के जाल में पांडव फंस गए और अपना सबकुछ गंवा बैठे। यहां तक पांडव अपनी पत्नी द्रौपदी को भी हार गए थे। भगवान कृष्ण की पहल के बाद भी पांडव को उनका राज नहीं लौटाया गया। इसके बाद 12 वर्ष तक वनवास, एक साल अज्ञातवास रहना पड़ा था। अज्ञातवास के दौरान पांडव बिहार के इलाकों में भी काफी रहे थे। कहा जाता है कि मुंगेर के भीमबांध में अज्ञातवास के दौरान भीम छिपकर रहे थे। इसी जगह हिडिंबा से उनकी शादी हुई थी और घटोत्कच्छ का जन्म हुआ था। पौराणिक कथा के अनुसार, जब पांडव जुए में अपना सारा राज-पाट हार गए थे तो द्रौपदी ने पुराने वैभव को वापस करने के लिए छठ व्रत किया था। सूर्य देव की उपासना के बाद ही धीरे-धीरे अच्छा समय लौटा। हालांकि, कर्ण को भी गलती का अहसास हुआ था, लेकिन वह दुर्योधन की गहरी दोस्ती के आगे विवश थे। बाद में राजपाट तो लौट गया, लेकिन 18 दिनों तक चले महाभारत की लड़ाई में कौरव के साथ पांडव ने भी बहुत कुछ गंवा दिया।
4 मुंगेर में मां सीता ने किया था छठ : छठ पर्व की मान्यता मां सीता से भी जुड़ी है। कहा जाता है कि जब राम-सीता 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया था। मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगाजल छिड़ककर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने को कहा। मुग्दल ऋषि का आश्रम मुंगेर में ही था और यह भी कहा जाता है कि उन्हीं के नाम पर शहर का नाम मुंगेर पड़ा है। जब मां सीता को मुग्दल ऋषि ने छठ पर्व करने को कहा तो वह इसके लिए ऋषि के आश्रम में ही आ गयी थीं। मां सीता ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर सूर्यदेव भगवान की पूजा की। इस दौरान उन्होंने पश्चिम की ओर डूबते सूर्य और पूर्व की ओर उगते सूर्य की पूजा की। साथ ही अर्घ्यदान किया। आज आश्रम की जगह पर मंदिर बना हुआ है और उसके गर्भगृह में पश्चिम और पूर्व की ओर मां सीता के चरणों के निशान हैं। मंदिर का गर्भगृह साल में छह माह गंगा के गर्भ में रहता है। हर वर्ष जब गंगा उफान पर होती है, तो सीताचरण मंदिर डूब जाता है… छह माह के बाद जब मंदिर का गर्भगृह बाहर आता है तो मां सीता के चरणों के निशान यथावत रहते हैं।
5 सूर्यदेव की बहन हैं छठी मईया : यह तो साफ है कि छठ महापर्व में मुख्य रूप से छठी मईया की पूजा होती है और भगवान सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है। माना जाता है कि चार दिनों का छठ महापर्व घर-परिवार में सुख-शांति और समृद्धि के लिए की जाती है। सभी पर्व-त्योहारों में छठ ही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें डूबते हुए सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है, लेकिन लोग आज भी जानने को उत्सुक रहता है कि छठी माई की पूजा में भगवान सूर्य को अर्घ्य क्यों दिया जाता है…? पौराणिक मान्यता है कि छठी मईया भगवान सूर्यदेव की बहन हैं। यही कारण है कि छठ पर्व पर सूर्यदेव की उपासना विशेष फलदायी होती है। दरअसल, षष्ठी देवी को ही छठी मईया कहा जाता है। साथ ही इन्हें ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है, जो निसंतानों को संतान प्रदान करती हैं। जन्म के छठे दिन मनाई जाने वाली छठी के मौके पर भी षष्ठी देवी की ही पूजा की जाती है। मां छठी को कात्यायनी नाम से भी जाना जाता है। नवरात्रि की षष्ठी तिथि को इन्हीं की पूजा की जाती है।
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