अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर, बदलते बिहार में और भी प्रासंगिक

PATNA (SMR) : दूरदर्शन केंद्र, पटना के सहायक निदेशक (समाचार) अजय कुमार मूलत: सीवान के निवासी हैं। उनकी हाल ही पुस्‍तक प्रकाशित हुई है- अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर। बदलते बिहार में इस पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ गयी है। राजनीतिक विश्लेषक वीरेंद्र यादव ने इस पुस्तक की बेहतरीन समीक्षा की है। इसे उनके सोशल मीडिया से अक्षरशः लिया गया है। 

निश्चित रूप से इस पुस्‍तक का विषय वस्‍तु कुशवाहा जाति पर केंद्रित है। इसके साथ ही पुस्‍तक में खेती-किसानी आधारित अन्‍य जातियों के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों को भी स्‍पर्श किया है। इसमें खेती आधारित मध्‍यवर्गीय जातियों के आर्थिक अंत:संबंधों को देखने का प्रयास किया गया है। लेखक ने अपनी बात में ही स्‍वीकार किया है कि सभ्‍यता, संस्‍कृति और ज्ञान के नाम पर भारत के पास जो कुछ भी था, अंग्रेजों ने ही खोदा और हमें बताया। कुशवाहा जाति के सामाजिक महत्‍व की व्‍याख्‍या करते हुए उन्‍होंने लिखा है कि कुशवाहा शब्‍द एक छतरी है, जिसमें मूल निवासी कोईरी, माली, काछी, मुराव आदि खेतिहर जातियां शामिल हैं। बौद्धकालीन भारत की सामाजिक संस्‍कृति इनकी अपनी संस्‍कृति थी।

लेखक अजय कुमार ने 11 खंडों में बंटी इस पुस्‍तक में कुशवाहा जाति के ऐतिहासिक, सांस्‍कृतिक, आर्थिक और सामाजिक महत्‍व को रेखांकित करने के साथ ही इसके स्‍वरूप और सरोकार में आ रहे बदलाव को फोकस किया है। इसके पहले ही खंड में कुशवाहा खेतिहर के ऐतिहासिक पृष्‍ठभूमि को समझाने का प्रयास किया गया है। इसके बाद जमींदारी व्‍यवस्‍था, सामाजिक आंदोलन और अंग्रेजी राज के साथ संबंध पर प्रकाश डाला गया है। 

लेखक ने कई जगह पर स्‍पष्‍ट किया है कि कुशवाहा जाति का विकास क्रम एक जाति का नहीं, बल्कि संपूर्ण खेतिहर जातियों के विकास क्रम का इतिहास है। वर्ण व्‍यवस्‍था में कोईरी के साथ अहीर, कुर्मी, कहार, कुम्‍हार आदि सैकड़ों जातियां सामाजिक सम्‍मान से वंचित थीं। उन सबकी लड़ाई सबके सहयोग से लड़ी जा रही थी। इसमें कुशवाहा जाति ने बड़ी भूमिका निर्वाह किया। त्रिवेणी संघ के गठन और उसकी वैचारिकी के निर्धारण में भी कुशवाहा जाति के नेता जेपीएन मेहता ने बड़ी जिम्‍मेवारी निभायी थी। 

अजय कुमार ने कुशवाहा मुसलमानों को भी अपनी पुस्‍तक में जगह दी है। वे कहते हैं, मुसलमानों की बागबां जाति कोईरी जाति का ही धर्मांतरित रूप है, जिनका मुख्‍य पेशा खेती और फल-सब्‍जी उत्‍पादन है। अंग्रेजी राज में कुशवाहा की स्थिति के साथ ही आजाद भारत में भी उसकी राजनीतिक जमीन और ताकत को समझने का प्रयास पुस्‍तक में किया गया है। उन्‍होंने कोईरी जाति का संबंध बुद्ध के साथ भी जोड़ा है। 

दरअसल, यह पुस्‍तक सिर्फ जाति का दस्‍तावेज नहीं है, बल्कि विभिन्‍न रिपोर्टों के हवाले से उसकी महत्‍ता और औचित्‍य को बताने का भी प्रयास है। इस पुस्‍तक के विषय वस्‍तु को वर्तमान राजनीतिक हालात से जोड़ें तो इसकी प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। बिहार के नये सामाजिक और राजनीतिक समीकरण के दौर में कुशवाहा जाति एक बड़ी ताकत बन गयी है। सामाजिक न्‍याय आंदोलन के दौर में यह जाति मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के साथ जुड़कर राजनीति करती रही है, लेकिन भाजपा ने भी इस जाति पर डोर डालने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है। लव-कुश को श्रीराम का पुत्र बताकर भाजपा के साथ कुशवाहा जाति के सरोकार जोड़े जा रहे हैं। वैसी स्थिति में इस पुस्‍तक का प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इस पुस्‍तक का प्रकाशन पटना के अलका प्रकाशन ने किया है। पुस्‍तक की कीमत 125 रुपये है।

पुस्तक : अंग्रेजी राज में कुशवाहा खेतिहर। लेखक : अजय कुमार। प्रकाशक : अलका प्रकाशन। समीक्षक : वीरेंद्र यादव। मूल्य : 125/- रुपये

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