बिहार के ये 5 बड़े देवी मंदिर, नवरात्र पर उमड़ते हैं भक्त; पूरी होतीं मनोकामनाएं

PATNA (APP) : Navratri 2022 : नवरात्रि पर बिहार से लेकर बंगाल तक दुर्गा पूजा की धूम है। मंदिरों की भव्यता देखते ही बन रही है। बिहार में भी कोने-कोने में देवी दुर्गा का मंदिर स्थापित है। सभी मंदिरों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। सबकी अलग-अलग कथाएं हैं। इन मंदिरों और यहां बैठीं मां के दर्शन से लोगों की सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। ऐसे में हम आपको बिहार के उन 5 प्रमुख देवी मंदिरों के बारे में बताएँगे, जहां सालों भर लोग पूजा करने के लिए पहुंचते हैं। और दुर्गापूजा में तो यहां माँ के दर्शन को लाखों लोग पहुंचते हैं। कहा जाता है कि इन मंदिरों के दर्शन मात्र से लोगों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 

बड़ी पटनदेवी

बसे पहले बात करते हैं बिहार की राजधानी पटना में अवस्थित बड़ी पटनदेवी मंदिर की। यहां माँ बड़ी पटनदेवी विराजमान हैं। पटना सिटी में अवस्थित बड़ी पटनदेवी महत्त्वपूर्ण शक्तिपीठों में से एक है। कहा जाता है कि देवी सती के शरीर का दाहिना जांघ यहीं पर गिरा था। बताया जाता है कि उत्खनन के दौरान इसी जगह पर महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की तीन प्रतिमाएं मिली थीं, जिन्हें यहीं पर स्थापित कर दी गईं। ये सभी सभी प्रतिमाएं काले पत्थर की बनी हैं। इसी स्थल को बड़ी पटनदेवी का नाम से जाना जाता है। यहां सालों भर भक्तों और श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती हैं। हर दिन हजारों लोग पहुंचते हैं और नवरात्रि में तो यह संख्या लाखों में पहुंच जाती हैं। बड़ी पटनदेवी से थोड़ी ही दूर पर छोटी पटनदेवी माँ का मंदिर है। दोनों मंदिरों के बीच लगभग तीन किलोमीटर की दूरी है। यह भी एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ माना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यहां देवी सती का पट और वस्त्र गिरे थे। जहां वस्त्र गिरा था, वहां पर मंदिर बनाया गया और माहालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती की प्रतिमाएं स्थापित की गईं। बड़ी पटनदेवी के दर्शन करने के लिए आने वाले लोग छोटी पटनदेवी माँ के दर्शन भी अनिवार्य रूप से करते हैं और दुर्गा पूजा में तो इन दोनों मंदिरों की भव्यता और छँटा देखते ही बनती है। 

थावे वाली मां

थावे वाली माँ के मंदिर की भी पौराणिक मान्यताएं हैं। यह अलौकिक मंदिर गोपालगंज शहर मुख्यालय से 6 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। इस इलाके का नाम थावे है, इसलिए इस मंदिर का नाम थावे मंदिर पड़ गया और माँ को थावे वाली माँ कहा जाने लगा। माँ थावेवाली को सिंहासिनी भवानी, रहषु भवानी और थावे भवानी भी कहा जाता है। कहा जाता है कि माँ थावेवाली असम के कामरूप कामाख्या से आयी हैं। पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन काल में थावे में माता कामख्या के बहुत सचे भक्त रहषु भगत रहते थे। वो माता की बहुत सच्चे मन से भक्ति करते थे और माता भी उनकी भक्ति से प्रसन्न रहती थीं। माता की कृपा से उनके अंदर बहुत-सी दिव्य शक्तियां भी थीं, लेकिन वहां के तत्कालीन राजा मनन सिंह को उनकी भक्ति पसंद नहीं थी। वे रहषु भगत को ढोंगी-पाखंडी समझते थे। एक दिन राजा ने अपने दरबार में उनके साथ काफी अभद्र व्यवहार किया। भगत ने कहा कि हमें तो माँ दर्शन भी देती हैं। रहषु भगत से यह बात सुनते ही राजा अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने भगत को चुनौती दी कि यदि तुम वास्तव में माता के सच्चे भक्त हो तो मेरे सामने माता को बुलाकर दिखाओ, नहीं तो तुम्हें दंड दिया जायेगा। राजा के हठ के आगे रहषु भगत लाचार हो गए। उनके आह्वान पर माँ कामरूप कामाख्या से प्रस्थान किया और थावे पहुंचीं। कहा जाता है, माँ ने रहषु भगत के मस्तक को फाड़कर अपना कंगन दिखाया। इसके साथ ही राजा और उनके राज-पाट का अंत हो गया। उसी जगह पर आज माँ थावे वाली माँ का भव्य मंदिर है। उसके बगल में ही रहषु भगत का मंदिर है और ऐसी मान्यता है कि रहषु भगत की मूर्ति के दर्शन के बिना माँ की भक्ति पूरी नहीं होती है। 

मां चंडिका

मुंगेर जिले में गंगा तट पर स्थित मां चंडिका देवी का मंदिर भी प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। इस स्थल पर माता सती की दाईं आंख गिरी थी। यहां मुख्य मंदिर में सोने से गढ़ी आंख स्थापित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस मंदिर की स्थापना का उल्लेख सतयुग से ही है। बताया जाता है कि लंका विजय के बाद भगवान राम ने यहां देवी की पूजा की थी। यहां की यह भी मान्यता है कि यहां दर्शन मात्र से आंखों की समस्या दूर हो जाती है। दरअसल, इस मंदिर में लोग आंखों की पीड़ा को दूर करने की उम्मीद लिए आते हैं। मान्यता है कि यहां का काजल हर प्रकार का नेत्रविकार दूर करता है, इसलिए लोग दूर-दूर से केवल यहां काजल लेने आते हैं। वैसे तो यहां पूरे साल मां के भक्तों की भीड़ रहती है, लेकिन नवरात्र में उनकी संख्या लाखों में पहुंच जाती हैं। इस मंदिर की कथा रामायण काल के अलावा महाभारत युग से भी जुड़ी है। कथा के अनुसार, अंग देश के राजा कर्ण मां चंडिका के भक्त थे और रोजाना खौलते हुए तेल की कड़ाह में कूद जाते थे। इस प्रकार वह अपनी जान देकर मां की पूजा किया करते थे। माँ उनके इस बलिदान से अत्यंत प्रसन्न हो जाती थीं और हर रोज वह राजा कर्ण को जीवित कर देती थीं। इसके अलावा वो कर्ण को सवा मन सोना भी देती थीं। कर्ण उस सोने को मुंगेर के कर्ण चौराहे पर ले जाकर लोगों में बांटते थे। कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य को यह जानकारी मिली तो वे वहां चुपके से वेश बदलकर पहुंच गए और राजा कर्ण के इस राज को वे जान गए। एक दिन चुपके से राजा विक्रमादित्य राजा कर्ण से पहले वहां पहुंच गए और उन्होंने कड़ाह में छलांग लगा दी। बाद में रोजाना की भांति माँ ने उन्हें जीवित कर दिया। उन्होंने लगातार तीन बार कड़ाह में कूदकर अपना शरीर समाप्त किया और माता ने उन्हें जीवित कर दिया। चौथी बार माता ने उन्हें रोका और वर मांगने को कहा। तब राजा विक्रमादित्य ने माता से सोना देने वाला थैला और अमृत कलश मांग लिया। कहा जाता है कि माता ने दोनों चीज देने के बाद वहां रखे कड़ाह को उलट दिया और उसी के अंदर विराजमान हो गईं। इसके बाद से अभी तक कड़ाह उलटा हुआ है और उसी के अंदर माँ की पूजा होती है।  

माँ उग्रतारा

ब बात करते हैं माँ उग्रतारा की। माँ उग्रतारा मंदिर सहरसा में अवस्थित है। यह भी एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ है। यह शक्तिपीठ सहरसा मुख्यालय से 17 किमी दूर महिषी में स्थित है। कहा जाता है कि यहां देवी सती की बाईं आंख गिरी थी। यहां भगवती तीनों स्वरूप उग्रतारा, नील सरस्वती एवं एकजटा के रूप में विद्यमान हैं। ऐसी मान्यता है कि बिना उग्रतारा के आदेश के तंत्र सिद्धि पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि तंत्र साधना करने वाले लोग यहां अवश्य आते हैं। नवरात्रा में अष्टमी के दिन यहां साधकों की भीड़ लगती है। मंदिर को लेकर यह भी मान्यता है कि ऋषि वशिष्ठ ने उग्रतप की बदौलत भगवती को प्रसन्न किया था। उनके प्रथम साधक की इस कठिन साधना के कारण ही भगवती वशिष्ठ आराधिता उग्रतारा के नाम से जानी जाती हैं। उग्रतारा नाम के पीछे दूसरी मान्यता यह है कि माँ अपने भक्तों के उग्र से उग्र व्याधियों का नाश करने वाली हैं। बताया जाता है कि महर्षि वशिष्ठ ने चीनाचार विधि से देवी की घोर उपासना इसी स्थल पर की थी। वहीं यह भी कहा जाता है कि मधुबनी के राजा नरेंद्र सिंह की पत्नी रानी पद्मावती ने 1735 में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी भारती से आदिशंकराचार्य का शास्त्रार्थ इसी जगह पर हुआ था, जिसमें शंकराचार्य को पराजित होना पड़ा था। 

मां मुंडेश्वरी मंदिर

ब हम बात कर रहे हैं माँ मुंडेश्वरी मंदिर की.। यहां आने वाले भक्त अपनी मुरादों को लेकर माँ का दर्शन करते हैं। मान्यता है कि माँ अपने हर भक्त की मनोकामना पूरी करती हैं और यह मंदिर कैमूर की पहाड़ी पर अवस्थित है। माँ मुंडेश्वरी मंदिर की खास बात यह है कि यहां पशु बलि की सात्विक परंपरा है। यहां पर बलि के लिए बकरा लाया जाता है, लेकिन उसके प्राण नहीं लिए जाते। दरअसल, जब बकरे को माता के सामने लाया जाता है तो पुजारी माँ की मूर्ति को स्पर्श कर कुछ चावल बकरे पर फेंक देता है, जिससे बकरा बेहोश हो जाता है। फिर थोड़ी देर के बाद उस पर अक्षत फेंकने की प्रक्रिया होती है तो बकरा उठ खड़ा होता है। बस ऐसे ही बलि की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जहां ये मंदिर बना है, उस जगह पर मां ने चण्ड-मुण्ड नाम के असुरों का वध किया था, इसलिए यह मंदिर माता मुंडेश्वरी देवी के नाम से प्रसिद्ध है.. बता दें कि मंदिर परिसर में पाए गए कुछ शिलालेख ब्राह्मी लिपि में हैं और मंदिर का अष्टाकार गर्भगृह आज तक कायम है।

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