PATNA (SMR) : आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है। पूरा राष्ट्र उन्हें याद कर रहा है। लोग बापू की प्रशंसा कर रहे हैं। गोडसे को गाली बक रहे हैं। गांधी-गोडसे पर सियासत भी खूब होती है। वहीं इससे इतर वरीय पत्रकार पुष्यमित्र ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में गांधी को प्रेम तो गोडसे को नफरत का प्रतीक माना है। उन्होंने यह कहा है कि हर आदमी में गोडसे और गांधी दोनों हैं। शहीद दिवस पर उनका यह आलेख उनके फेसबुक पोस्ट से अक्षरशः लिया गया है। इसमें लेखक के निजी विचार हैं। पेश है :
मुझे लगता है आज, गांधी जी के शहादत दिवस के मौके पर यह सबसे अच्छा संकल्प हो सकता है। हम सबके भीतर गांधी भी हैं और गोडसे भी। जहां गांधी प्रेम और क्षमा का प्रतीक हैं, वहीं गोडसे नफरत का। गांधी हमें असहमत लोगों से संवाद करने के लिए प्रेरित करते हैं। दोषियों को प्रेम से सुधारने का रास्ता बताते हैं और सिखाते हैं कि हर आदमी में बेहतर मनुष्य बनने की संभावना है। उसे मिटा देने या दंडित करने से बेहतर विकल्प है, उसे सुधर जाने का मौका देना।
वहीं गोडसे कहता है, जो आपसे असहमत है उसे मिटा डालो, खत्म कर दो। गोडसे को भरोसा है कि वह एक बार गांधी की हत्या कर देगा तो भारत के हिंदू राष्ट्र बनने का रास्ता साफ हो जायेगा। जबकि, ठीक उसी वक्त गांधी सोच रहे होते हैं कि एक दफा मैं दिल्ली के जंजाल से निकलूं। पाकिस्तान जाऊं और वहां के लोगों को वही प्रेम का रास्ता सिखाऊं, जो रास्ता मैंने नोआखली, कोलकाता और पटना के लोगों को सिखाया. दिल्ली के कट्टरपंथियों को सिखाया। गांधी के मन में एक सपना है कि अगर दोनों देशों के बीच नफरत की दीवार मिट जाये तो फिर से भारत एक हो सकता है। गोडसे का दल अखंड भारत का सपना तो देखता है, मगर उसकी बुनियाद उसी नफरत से भरी है, जिस नफरत के बीज पर जिन्ना ने देश का बंटवारा कर डाला।
गांधी और गोडसे अकेले-अकेले नहीं हैं। दोनों की परंपराएं हैं। जहां गांधी की परंपरा में बुद्ध हैं, महावीर हैं, कलिंग युद्ध के बाद बदल जाने वाला अशोक है और सत्य-अहिंसा की राह बताने वाले पार्श्वनाथ हैं। वहीं गोडसे की परंपरा में हिटलर है, मुसोलिनी है और जिन्ना है, सावरकर हैं। मिथकों में झांकें तो दुर्योधन है, जो नफरत में जलते इंसान का सबसे बड़ा प्रतीक है। वह बचपन से यही सोचता है कि एक बार पांडवों को खत्म कर दें, फिर सब ठीक हो जायेगा, मगर उसकी यह नफरत महाभारत करवा देती है।
नफरत का अंजाम ही महाभारत है। जिन्ना के नफरत की इंतेहा को देखिये। कहा, लड़कर लेंगे पाकिस्तान। उस नफरत ने ऐन आजादी के मौके पर देश को तबाही की राह पर धकेल दिया। जिन्ना ने लड़कर पाकिस्तान तो ले लिया, मगर क्या पाकिस्तान में अमन-चैन रहा? जिन्ना कहते थे कि हिंदू और मुसलमान दो अलग मुल्क हैं, कभी साथ नहीं रह सकते। मगर, देखिये तो बंटवारे के बाद भी हिंदू और मुसलमान कैसे भारत में एक साथ रह रहे हैं, जबकि नफरत की बुनियाद पर बने जिन्ना के पाकिस्तान में मुसलमान ही आपस में लड़ते रहते हैं।
प्रेम हो तो दुश्मनों के साथ रहना भी आसान हो जाता है, नफरत हो तो भाई-भाई भी साथ नहीं रह पाते। आजादी और बंटवारे के बाद के भारत और पाकिस्तान के अनुभव तो चीख-चीख कर यही बताते हैं, मगर दिक्कत यह है कि हाल के वर्षों में हमें नफरत प्यारी लगने लगी है। हम गोडसे को पूजने और गांधी को दुत्कारने लगे हैं। हम दुर्योधन की तरह सोचने लगे हैं कि एक बार इस देश से मुसलमानों का सफाया हो जाये तो सब ठीक हो जायेगा, मगर हम इतिहास के सबक भूल जाते हैं। हिटलर ने भी तो यही सोचा था कि एक दफा जर्मनी से यहूदियों का सफाया हो जाये तो जर्मनी दुनिया का सबसे सफल मुल्क बन जायेगा। क्या हुआ हिटलर का और जर्मनी का?
प्रेम का महत्व जर्मनी ने तबाह होकर सीखा। प्रेम का महत्व अशोक ने हिंसा की अति पर जाकर सीखा। आजादी के बाद हमने भी प्रेम का महत्व गांधी को खोकर सीखा था। क्या हम फिर से तबाह होकर ही प्रेम का महत्व सीख पायेंगे? या फिर हम इतिहास के इन उदाहरणों से ही सीख लेंगे। मुझे तो लगता है कि उदाहरणों से सीखना ज्यादा बेहतर है। यह मुल्क अभी तबाही झेलने के लिए तैयार नहीं है और तबाही कोई अच्छी चीज भी नहीं, यह आप भी जानते हैं। तभी आप अपने बच्चों के हाथ में तलवार और फरसा के बदले कलम थमाते हैं।