बिहार में फिर लौटी सुजनी, तब कंबल कहां, दादी-नानी की ममता थी; ध्रुव गुप्त की कलम से…

PATNA (SMR) : सर्दी की गर्मी। एक समय था, जब गांवों में सर्दी से लड़ने के कई हथियार थे। हम बात कर रहे हैं गाँती, बोरसी, सुजनी के। अब इनके दिन तो लद गए। एकमात्र अदरक वाली चाय है, जो आज के बदले दौर में भी हमारी जरूरतों और आदतों में शामिल रह गई है। लेकिन इन दिनों सुजनी फिर से लौट आयी है। लेकिन कैसे…? देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, सोशल मीडिया फ्रेंडली और पूर्व पुलिस अधिकारी ध्रुव गुप्त ने बड़े ही सहज अंदाज में उन दिनों की याद दिलाई है, जब हमारी माँ, दादी, नानी सर्दी से लड़ने को गांती बांध देती थीं, बोरसी जला देती थीं और सुजनी बनती थीं… यह आलेख उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है और इसमें उनके निजी विचार हैं… यहां पढ़िये अक्षरशः कि सुजनी कैसे लौट आयी…  

मारे देश में सर्दी से मुकाबले के कुछ पारंपरिक तरीकों में एक सुजनी, गुदड़ी या कथरी भी हुआ करती थी। रजाई, कंबल का सुख तब बहुत कम घरों को नसीब था। सुजनी बाजार में नहीं बिकता था। उसे बड़ी बारीकी और मनोयोग से घर की औरतें ही बनाती थीं। उनमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री थी घर की पुरानी चादरें, धोतियां और साड़ियां। कई-कई तहों में उन्हें एक पर एक रखकर इतनी बारीकी से उन पर सुई चलाई जाती थी कि उनका कोई हिस्सा मुंह निकालकर बाहर नहीं झांके। इसे बनाने वाली स्त्रियों की रुचि के हिसाब से समय के साथ सुजनी में कई परिवर्तन भी आए। कुछ औरतें सिलाई से बच गए नए कपड़ों के रंग-बिरंगे टुकड़ों को फूल, पशु-पक्षियों, देवी-देवता की आकृति में काटकर सुई की सहायता से उन्हें सुजनी पर जहां-तहां सिल देती थीं। इससे सुजनी का आकर्षण बढ़ जाता था। 

कपड़ों की कई तहों के कारण वातावरण की ठंढ का उनमें प्रवेश संभव नहीं होता था। ठंढ कितनी भी प्रबल हो, उससे बचने के लिए एक सुजनी पर्याप्त थी। तब बिस्तर के गर्म गद्दे भी इसी तरीके से बनाए जाते थे। पुराने दौर की इस सुजनी का ठंढ पर असर आज के डिज़ाइनर कंबलों से कुछ ज्यादा ही होता था। शायद इसीलिए कि इनमें कपड़ों के अलावा घर की औरतों का ममत्व भी शामिल हुआ करता था। फिर यह हुआ कि कुछ दशकों पहले बाजार में रंग- बिरंगे, आकर्षक कंबलों के आक्रामक हमले ने हमारी सुजनी को लगभग पूरी तरह से विस्थापित कर दिया।

अभी कुछ ही सालों पहले सुजनी की इस प्राचीन परंपरा का पुनर्जन्म हुआ है। इस बार गृह उद्योग के रूप में। फर्क यह है कि अब इसमें पुराने नहीं, नए कपड़ों का उपयोग होता है और उसे आकर्षक बनाने के लिए उनपर हस्तशिल्प के नए-नए और कलात्मक प्रयोग किए जा रहे हैं। इसे सुजनी कला का नाम दिया गया है। 

बिहार के मुजफ्फरपुर और मिथिला क्षेत्र के गांवों में कुटीर उद्योग के रूप में इस कला ने स्त्रियों के लिए रोजगार के नए अवसर पैदा किए हैं। इस कला को GI टैग भी मिला है। तेजी से लोकप्रिय हो रही इस कला का इस्तेमाल अब डिजाइनर रजाईयां, चादर और शॉल बनाने में हो रहा है। हमारे बचपन में गरीबों का ओढ़ना-बिछौना समझी जाने वाली सुजनी अपने नए अवतार में आज अमीर घरों की शान बनने लगी है। 

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