सर्दी की ‘गर्मी’ : गांवों में भी अब गांती-बोरसी के नहीं रहे अच्छे दिन, बस रह गयी अदरक वाली चाय

PATNA (SMR) : सर्दी की गर्मी। एक समय था, जब गांवों में सर्दी से लड़ने के कई हथियार थे। हम बात कर रहे हैं गाँती, बोरसी, सुजनी के। अब इनके दिन तो लद गए। एकमात्र अदरक वाली चाय है, जो आज के बदले दौर में भी हमारी जरूरतों और आदतों में शामिल रह गई है। देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकार, सोशल मीडिया फ्रेंडली और पूर्व पुलिस अधिकारी ध्रुव गुप्त ने बड़े ही सहज अंदाज में उन दिनों की याद दिलाई है, जब हमारी माँ, दादी, नानी सर्दी से लड़ने को गांती बांध देती थी, बोरसी जला देती थी… यह आलेख उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है और इसमें उनके निजी विचार हैं…  

र्दियों  के आगमन के साथ ही  गर्म कपड़ों और गर्मी देने वाले विद्युत उपकरणों की दुकानों में भीड़ लगने लगती है। बाजार रंग-बिरंगे डिज़ाइनर स्वेटर, जैकेट, थर्मल्स, कंबलों और अत्याधुनिक तकनीक से बने हीटर और ब्लोअर्स से पट जाते  हैं। आज की पीढ़ी के लिए सर्दी के दिन फैशन के नए-नए ईजाद आजमाने के दिन हैं। पुरानी पीढ़ी के लोगों के लिए ये मोटे कंबलों और चादरों को देह में लपेटकर सर्दी से लड़ने के पुराने और पारंपरिक तरीकों को याद कर रोमांचित होने का अवसर है। अभी कुछ ही दशकों पहले तक कंबल, थर्मल, जैकेट, हीटर और ब्लोअर्स की पहुँच शहरों के सुविधासंपन्न वर्गों तक ही थी। ग्रामीण और शहरी आमजन के पास सर्दी से मुकाबले के कुछ बेहद सस्ते और पारंपरिक, लेकिन कारगर तरीके हुआ करते थे। आज के दौर में वे सभी चीजें लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं, लेकिन उनकी गर्मी पुरानी पीढ़ियों के लोग अपनी स्मृतियों में आज भी महसूस करते हैं।

तब सर्दियों के खिलाफ सबसे कारगर जो हथियार होता था उसे गाँती कहते थे। पारंपरिक, बेमोल लेकिन बहुत कारगर। कैसी भी सर्दी से बचने का एकदम फूल प्रूफ तरीका। गाँवों के गरीब घरों में अब भी यह कहीं-कहीं दिख जाता है, लेकिन शहरों और कस्बों से यह गायब हो चुका है। गाँती किसी हाट -बाजार में नहीं बिकता था। घर में भी इसे बनाने की जरुरत नहीं थी। हर घर में यह बना-बनाया मिल जाता है। बस इसे बाँधने का हुनर सीखना पड़ता है। इसकी सामग्री होती थी घर में बाबूजी की कोई पुरानी धोती या पुराना गमछा, माँ की कोई पुरानी साड़ी, बहनों के फटे शाल या बिस्तर से खारिज फटी या पुरानी कोई चादर। उसे सिर पर लपेटने के बाद उसके दोनों खूँटों को गर्दन से बाँध दिया जाता था। कपड़े का बाकी हिस्सा देह के हर तरफ लटका होता था। जहाँ चादर के सिर से सरकने का अंदेशा हमेशा बना रहता है, गांती सिर, कानों और गर्दन को सर्दी से ऐसी सुरक्षा देता था कि सर्दी तो क्या, सर्दी का भूत भी भीतर प्रवेश न कर सके। 

गाँती बच्चों के लिए सर्दी के खिलाफ कपड़े का एक टुकड़ा भर नहीं होता था। हमारी माँओं और दादियों का दुलार, वात्सल्य और उनकी चिंताएं भी लिपटी होती थीं उसमें। हमारी पीढ़ी ने कपड़े के उसी टुकड़े के सहारे सर्दियों के पहाड़ काटे थे। अब के थर्मल, स्वेटर, कोट और जैकेट मिलकर भी गर्मी का वह अहसास नहीं दे पाते। अब गाँती भले ही गँवार होने की निशानी समझी जाय, लेकिन तेज सर्दियों में अब भी उसे बाँध लेने की प्रबल इच्छा होती है। क्या करें कि उसे बाँधने का सलीका भी हमारी माँओं के साथ ही चला गया।

सर्दियों के खिलाफ जो दूसरा पारंपरिक हथियार होता था उसे लोग बोरसी कहते थे। शहरों में बस चुके जिन लोगों की जड़ें गाँवों में हैं, उन्हें जाड़े की रातों में बोरसी की आग की स्मृतियाँ भूली नहीं होंगी। घर के दरवाजे पर या दालान में जलती-सुलगती बोरसी का मतलब होता था शीत से संपूर्ण सुरक्षा। वातावरण की ठंढ और आग की उष्णता के घालमेल से बच्चों को बचाने के लिए उनके शरीर के हर हिस्से में गाँती लपेट दी जाती थी। बड़े-बूढ़ों की देह पर होती थी चादर। अब शहरों या गाँवों में भी पक्के, सुंदर घरों वाले लोग धुएँ से घर की दीवारें काली पड़ जाने के डर से बोरसी नहीं सुलगाते। उसकी जगह रूम हीटर या ब्लोअर ने ले ली है। मिट्टी और खपरैल के मकानों में ऐसा कोई डर नहीं होता था। घर के बुजुर्ग कहते थे कि दरवाजे पर बोरसी की आग हो तो ठंढ तो क्या, सांप-बिच्छू और भूत-प्रेतो का भी घर में प्रवेश बंद हो जाता है। 

सार्वजनिक जगहों पर जलनेवाले अलाव या घूरे गाँव-टोले के चौपाल होते थे। बोरसी को पारिवारिक चौपाल का दर्जा हासिल था। उसके पास शाम के बाद जब घर के लोग एकत्र होते थे तो वहाँ घर-परिवार और पास-पड़ोस की समस्याओं से लेकर देश-दुनिया की दशा-दिशा पर घंटों बहसें चलती थीं। घर के कई मसले बोरसी के गिर्द सुलझ जाते थे। देश-दुनिया के मसलों से सरकारों की नाकामी या भगवान की इच्छा बताकर छुट्टी पा ली जाती थी। बच्चों के लिए बोरसी का रोमांच यह था कि वहाँ आग सेंकने के अलावा आलू , शकरकंद, सुथनी पकाने-खाने के अवसर उपलब्ध थे। किशोरों के रूमानी सपनों को बोरसी की आग ऊष्मा और उड़ान देती थी। बिस्तर पर जाते समय बोरसी को उसकी बची-खुची आग सहित बुजुर्गों या बच्चों के बिस्तरों के पास या उनकी खाट के नीचे रख दिया जाता था। ब्लोअर्स चलाकर टीवी के सामने या हाथ में मोबाइल लेकर बैठे आज के युवाओं और बच्चों के पास बोरसी की यादें नहीं हैं। जिन बुजुर्गों ने कभी बोरसी की गर्मी और रूमान महसूस किया है उनके पास घरों की डिजाइनर दीवारों और छतों के नीचे बोरसी की आग सुलगाते की आज़ादी अब नहीं रही !

बिस्तर पर भी सर्दी से मुकाबले के पारंपरिक तरीके थे। रजाई और कंबल का सुख तब बहुत कम घरों को नसीब था। उनकी जगह जिस ओढ़ने का इस्तेमाल होता था, उसे गाँवों में सुजनी, गुदरी या लेवा कहा जाता था। यह भी बाजार में नहीं बिकता था। उसे बड़ी बारीकी और मनोयोग से घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें बनाती थीं। उनमें इस्तेमाल होने वाली सामग्री थी घर की पुरानी चादरें, धोतियाँ और साड़ियाँ। कई-कई तहों में उन्हें एक पर एक रखकर इतनी बारीकी से उनपर सुई चलाई जाती थी कि उनका कोई हिस्सा मुँह निकालकर बाहर नहीं झाँके। कपड़ों की कई तहों के कारण वातावरण की ठंढी का उनमें प्रवेश संभव नहीं होता था। ठंड कितनी भी प्रबल हो, उससे बचने के लिए एक सुजनी पर्याप्त थी। तब बिस्तर के गर्म गद्दे भी इसी तरीके से बनाए जाते थे। देखने में सुजनी भले ही डिज़ाइनर नहीं दिखे, लेकिन ठंड पर उसका असर आज के डिज़ाइनर कंबलों से कुछ ज्यादा ही होता था। इसे बनाने वाली स्त्रियों की रुचि के हिसाब से सुजनी में कई परिवर्तन भी आए। कुछ औरतें सिलाई से बचे नए कपड़ों के रंग-विरंगे टुकड़ों को फूल, कोई सुंदर दृश्य या देवी-देवता की आकृति में काटकर सुई की सहायता से उन्हें सुजनी पर जहाँ-तहाँ सिल देती थीं। इससे सुजनी का आकर्षण बढ़ जाता था। बाद में इस कला ने सुजनी कला का रूप ले लिया जिसका प्रयोग अब कलात्मक रजाइयाँ बनाने में होता है।

सर्दियों में खुद को ठंड से बचाए रखने के लिए जिस चौथी चीज का इस्तेमाल आम था, वह थी अदरक वाली चाय। गाँती, बोरसी, सुजनी के दिन तो लद गए। एकमात्र अदरक वाली चाय है जो आज के बदले दौर में भी हमारी जरूरतों और आदतों में शामिल रह गई है। हमारे पूर्वजों ने अदरक वाली चाय की परंपरा ऐसे ही नहीं चलाई थी। वैसे तो किसी भी मौसम में अदरक हमारे भोजन का आवश्यक हिस्सा है, लेकिन सर्दियों में अदरक की चाय के मज़े ही कुछ और होते  है। यह सर्दी तो भगाती ही है, इसके कप से उठने वाली चाय, दूध, चीनी या गुड़ और अदरक की मिली-जुली गंध दिलोदिमाग को भी तरोताज़ा कर जाती है। हाड़ कंपाती ठंढ में यह अकेली चीज़ है जो हमें रजाई या कंबल से बाहर निकलने की हिम्मत देती है। आप यदि अकेले हैं तो यह चाय आपके अकेलेपन में रंग भरेगी। आपके पास काम का बोझ है तो यह आपको ऊर्जा और स्फूर्ति देगी। आप रचनाधर्मी है तो आपकी कल्पनाशीलता को यह पंख लगाती है। अदरक वाली चाय में चीनी की जगह गुड़ की गंवई मिठास घुली हो तो उसे पी लेने के बाद आपके मुँह से एक ही शब्द निकलेगा – अहा ! स्वास्थ के प्रति सचेत लोगों के लिए अदरक वाली चाय दर्द निवारक, एंटी बैक्टीरियल, एंटी ऑक्सीडेंट और एंटी एजिंग होने के अलावा कई विटामिन्स तथा मिनरल्स का खजाना है। अदरक को ऐसे ही समझदार लोगों की पहचान नहीं कहा गया है। अदरक को नापसंद करने वाले लोगों के लिए हमारे यहां एक कहावत है – बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *