निजीकरण की जलेबी में उलझता भारत, ‘इसमें तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता’

रेलवे, बैंक, ऐरोप्लने… सब निजीकरण की राह पर है। कुछ बिक गए, कुछ बिकने वाले हैं और कुछ की प्लानिंग चल रही है। ताजा मामला बैंकों का है। राष्ट्रीयकृत बैंकों को प्राइवेट की राह पर लाने की बात हो रही है। इसे भांपते हुए 16 और 17 दिसंबर को 22 बैंकों ने हड़ताल की। करोड़ों करोड़ का लॉस हुआ। इस पर वरीय पत्रकार विवेकानंद सिंह ने चुटीले अंदाज में हकीकत का चित्रण किया है। यह व्यंग्यात्मक आलेख उनके सोशल मीडिया अकाउंट से लिया गया है। इसमें उनके निजी विचार हैं। अब पढ़िये पूरा आलेख :

दुनिया में हर काम के फायदे और नुकसान दोनों होते हैं। कोई भी ऐसा काम नहीं, जिसके सिर्फ नुकसान ही हों और फायदे नहीं। यहां तक कि किसी की हत्या से भी फायदा होता है कि ‘आबादी में एक की कमी आती है।’ ऐसे में किसी कदम के सही-गलत के मापदंड को समझने के लिए देखना यह होता है कि फायदा ज्यादा है या नुकसान। फायदा है तो किसको है? नुकसान है तो किसको है? उस कदम के दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं?

उपरोक्त लंतरानी का उद्देश्य यह जानना है कि निजीकरण के फायदे ज्यादा हैं या नुकसान? अर्थ-वित्त-वाणिज्य की बहुत समझ न होने के बावजूद आप यह कह सकते हैं कि कहीं-कहीं निजीकरण ठीक भी है और कहीं-कहीं बिल्कुल गलत। जैसे- हवाई यातायात, टेलीकॉम सेवाओं में, ट्रांसपोटेशन में, कुरियर/डाक सेवाओं में आप निजीकरण के अनुभव को देख-समझ रहे हैं। यह कहां ठीक है और कहां गलत, उसके लिए एक आलेख अलग से लिखा जा सकता है। अभी मुद्दा है राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण का।

संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में मोदी सरकार दो राष्ट्रीयकृत बैंकों को प्राइवेटाइज करने के उद्देश्य से बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक, 2021 लाने वाली थी। जैसी सूचना मिल रही है, उसके मुताबिक बैंककर्मियों की दो दिवसीय स्ट्राइक आदि की वजह से सरकार पुनर्विचार मोड में आ गयी है। हो सकता है कि यह विधेयक (बिल) अगले सत्र तक के लिए टल जाये। इसके पिछले सत्र में मोदी सरकार राष्ट्रीयकृत बीमा कंपनियों के निजीकरण का रास्ता साफ कर चुकी है। 

दरअसल, केंद्रीय बजट 2021-22 में ही वित्त मंत्री सीतारमण ने विनिवेश लक्ष्यों को पूरा करने के लिए दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के लिए उस कानून में संशोधन की बात कह रखी थी, जिसके जरिये इंदिरा गांधी ने कभी निजी बैंकों को सरकारी बनाया था।

अब आपके मन में होगा कि निजीकरण के बाद बैंकों में कौन से हीरे-मोती जुड़ जायेंगे? सरकार के इस फैसले के बाद सरकार राष्ट्रीयकृत बैंकों में अपनी न्यूनतम हिस्सेदारी  (51 प्रतिशत) में से 25 प्रतिशत और भी बेच पायेगी। यानी इसके बाद बैंक में सरकार की न्यूनतम हिस्सेदारी 26 प्रतिशत हो जायेगी।

अब आप कहेंगे कि त गलत क्या है इसमें। हमारे मोदी जी को और भी काम है कि खाली बैंके देखना है? मोदी जी वैसे भी बैंकों को समेट चुके हैं। उनके आने से पहले देश में 20 से ज्यादा राष्ट्रीयकृत बैंक होते थे। अभी वह संख्या 12 तक पहुंच चुकी है। मुझे लगता है कि मोदी जी का लक्ष्य है कि वे इसको ‘एक देश-एक बैंक’ तक लेकर जाएं। विविधता विरोधी सरकार की यह नीति एकदम खत्तम है। भुगतना हम-आपको ही है।

अभी पूंजीपतियों को सरकारी वाले बैंक से बड़ा लोन लेने में सरकारी परमिशन, लंद-फंद देवानंद की जरूरत पड़ती है। यही निजीकरण हो जाने पर उनको तो झटझट लोन और सेवा मिलेगा। लेकिन आपको पैसे रखने के एवज में भी शुल्क न देना पड़े। बैंक ही कहेगा कि म्यूच्यूअल फंड में डालिए, क्या सेविंग के चक्कर में पड़े हैं। 

निजीकरण अपने साथ मुट्ठी भर रोजगार और ट्रक भर बेरोजगारी लायेगी। जगह-जगह बैंकों की शाखा नहीं चलेगी। के ऑफिस के खर्च उठायेगा भैया? बाकी, हम अदर बुड़बक कैटेगरी से आते हैं, तो अपना बाल-बच्चे का भविष्य भी सोचवे न करेंगे जी? किसी भी निजी कंपनी में ओबीसी-एससी-एसटी के लोग अंगुली पर गिना जाएंगे। वैसे भी बुड़बक लोगों में टैलेंट-फैलेंट कुछ होता नहीं है।

यानी बैंकों के निजीकरण से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए रोजगार के अवसरों की कमी होगी। चूंकि निजी क्षेत्र कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण नीतियों का पालन नहीं करता है। साथ ही राष्ट्रीयकृत बैंक बड़े रोजगारदाता हैं। ऐसे में कुछ सवर्ण दोस्त बोलेंगे – इसमें तेरा घाटा, मेरा कुछ नहीं जाता।

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