PATNA (MR) : बिल्कुल ठेठ बिहारी बोली में लिखी गयी है लघुकथा संग्रह ‘अब न अंगूठा छाप’। पुस्तक समीक्षक रचना प्रियदर्शिनी युवा एवं तेजतर्रार पत्रकार हैं। तथ्यों पर इनकी बारीक पकड़ रहती है। वे लिखती हैं- ‘कोई पाठक बिहार की आंचलिक बोली से परिचित नहीं हैं, तो भी उसे इस संग्रह की कथाओं को समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी’। यह पुस्तक समीक्षा उनके फेसबुक पोस्ट से अक्षरशः ली गयी है। इसमें समीक्षक के निजी विचार हैं…
बिहार के नवोदित लघुकथाकार सुमन कुमार द्वारा लिखित एवं हालिया प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘अब न अंगूठा छाप’ का शीर्षक ही इतना रोचक है कि कोई भी पाठक इस पुस्तक को अपने हाथ में लेने के बाद पढ़े बिना नहीं रह सकता। इस संग्रह में कुल 36 लघुकथाएं शामिल हैं। इन लघुकथाओं की रोचकता कुछ ऐसी है कि पाठक एक लघुकथा पढ़ने के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, फिर चौथी, पांचवीं, छठी…. और यूं ही करते-करते सारी लघुकथाएं एक ही बार में पढ़ता जाये और 40-45 मिनट में पूरी किताब खत्म!
सुमन की लघुकथाओं की तीन प्रमुख विशेषताएं हैं- पहला, इन लघुकथाओं में आंचलिकता का पुट शामिल है। यह बिल्कुल आम बोलचाल या कहें कि बिल्कुल ठेठ बिहारी बोली में लिखी गयी है। वैसे अगर कोई पाठक बिहार की आंचलिक बोली से परिचित नहीं हैं, तो भी उसे समझने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी।
- लघुकथा संग्रह : अब न अंगूठा छाप
- कथाकार : सुमन कुमार
- प्रकाशक : कौस्तुभ प्रकाशन
- समीक्षक : रचना प्रियदर्शी
दूसरा, इन लघुकथाओं के माध्यम से लेखक ने सामाजिक कुरीतियों एवं विद्रुपताओं पर करारा प्रहार किया है और तीसरा, इन सभी लघुकथाओं की प्रस्तुति इतनी सरल, सहज एवं व्यावहारिक तरीके से की गयी है कि हर कोई खुद को इनसे गहराई से जुड़ा हुआ पाता है। पाठक को लगता है कि वो सारे किरदार तथा परिदृश्य, जिनसे इन लघुकथाओं को रचा-गढ़ा गया है, वे उनके आसपास मोजूद हैं। काफी हद तक यह सच भी है। इन लघुकहानियों के तमाम किरदारों एवं परिस्थितियों से हम सब कहीं-न-कहीं, कभी-न-कभी रूबरू जरूर हुए होंगे।
इतनी छोटी-सी उम्र में साहित्य जैसे गूढ़ विषय की इतनी सरल-सहज अभिव्यक्ति करने के लिए निश्चित ही सुमन सराहना के पात्र हैं। अगर आप में अपने समाज के प्रति, सामाजिक सरोकारों के प्रति तथा आम जीवन के उपेक्षित मुद्दों के प्रति थोड़े-बहुत भी संवेदनशीलता है, तो सुमन की यह पुस्तक यकीनन आपके अंतर्मन को गहरे से छू जायेगी।