आनंद मोहन की रिहाई अभी बिहार से लेकर देश तक के सियासी गलियारे में सुर्खियां बटोर रही है। कोई इसे जायज ठहरा रहा है तो कोई इसे दलितों के साथ अन्याय बता रहा है। सब अपने-अपने चश्मे इसे निहार रहे हैं और इस पर सियासत कर रहे हैं। लेकिन, आनंद मोहन पर सबसे ज्यादा यदि कोई कन्फ्यूज है तो वह है भारतीय जनता पार्टी। भाजपा इतना अधिक कन्फ्यूज क्यों है, इस पर कोई बोलना नहीं चाह रहा है। यही वजह है कि भाजपा के नेता आनंद मोहन को लेकर तरह-तरह की बयानबाजी कर रहे हैं। कोई उनकी रिहाई को सही ठहरा रहा है तो कोई बिलकुल ही गलत बता रहा है।
दरअसल, पिछले साल तक आनंद मोहन की रिहाई की मांग करने वाली भाजपा ने रिहाई मिलने के बाद अचानक यूटर्न ले लिया। खास बात कि बीजेपी के दिग्गज नेता व राज्यसभा सांसद सुशील मोदी ने इसी साल फरवरी माह में आनंद मोहन की रिहाई के पक्ष में बोले थे, और अब वे पूरी तरह विरोध में उतर आए हैं। एक मई को मजदूर दिवस पर पटना में चंद्रवंशी सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसमें उन्होंने आनंद मोहन को दलित का हत्यारा भी बताया था। उन्होंने कहा कि आनंद मोहन की रिहाई कहीं से ठीक नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि दलित के हत्यारे को कानून में संशोधन करके इसलिए छोड़़ दिया गया कि राजपूत समाज का लाभ महागठबंधन को मिले, लेकिन नीतीश कुमार जी सुन लीजिए कि इसका लाभ कहीं से नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं, सुशील मोदी ने यह भी कहा कि मेरे बीजेपी में भी राजपूत समाज के नेता भरे पड़े हैं। इस समाज से सबसे बड़े नेता तो योगी आदित्यनाथ है। उन्होंने राजनाथ सिंह से लेकर जर्नादन सिंह सिग्रीवाल तक के नाम गिनाए।
सियासी पंडित कहते हैं कि सुशील मोदी बिहार बीजेपी के उन नेताओं में शामिल हो गए हैं, जो आनंद मोहन की रिहाई का अब विरोध करने लगे हैं। हालांकि, सुशील मोदी की ओर से दलित का हत्यारा बताए जाने पर राजपूत समाज उनके विरोध में आ गया है। उनके खिलाफ क्षत्रिय समाज के लोगों ने प्रदर्शन भी किया। इसके साथ समाज के लोगों ने अब प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की भी मांग करने लगे हैं। प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की मांग करने वाले कोई और नहीं, बल्कि बीजेपी के ही सांसद राजीव प्रताप रूडी हैं। इनके अलावा गिरिराज सिंह, सम्राट चौधरी, नीरज बबलू समेत कई अन्य नेता भी आनंद मोहन का खुलकर समर्थन कर रहे हैं और कह रहे हैं कि नीतीश कुमार ने उन्हें फंसा दिया और वे अब बचाने की नौटंकी कर रहे हैं।
सियासी पंडितों की मानें तो आनंद मोहन की रिहाई के पीछे राजपूत वोट का सारा खेल है। सामने 2024 का लोकसभा चुनाव है। ऐसे में बीजेपी को लगने लगा है कि आनंद मोहन की रिहाई से महागठबंधन को फायदा हो सकता है। चूंकि उनके बेटे शिवहर से आरजेडी के टिकट पर विधायक हैं। दरअसल, महागठबंधन ने आनंद मोहन की रिहाई के बहाने बड़ा दांव चला है। वह सवर्ण वोटरों को साधने में जुट गया है और यह सबको पता है कि पिछले साल से ही तेजस्वी यादव ‘ए टू जेड’ की मुहिम चलाए हुए हैं। इसके पहले ‘भूमाय’ समीकरण पर जोर दिया गया था। बोचहां उपचुनाव और एमएलसी चुनाव में इसका सीधा फायदा आरजेडी को मिला भी था। बोचहां में अमर पासवान को भूमिहारों का जबर्दस्त फायदा मिला था, जबकि पिछले साल हुए उपचुनाव में कई भूमिहार नेता आरजेडीे कोटे से एमएलसी बने थे।
ऐसे में सियासी पंडित भी मानने लगे हैं कि अब वे राजपूत वोटरों को साधने की कोशिश में जुट गए हैं। हालांकि, राजपूत वोटरों का कुछ परसेंटेज पहले से भी आरजेडी को मिलते रहा है। लेकिन, अब तेजस्वी यादव नयी रणनीति के तहत राजपूत वोटरों पर फोकस कर रहे हैं और इस रणनीति में उन्हें नीतीश कुमार का पूरा साथ मिल रहा है। कहा जाता है कि इसी रणनीति के तहत आनंद मोहन की रिहाई का दांव चला गया, ताकि लोकसभा चुनाव 2024 और विधानसभा चुनाव 2025 में इसका फायदा महागठबंधन को मिल सके और इसी को लेकर बीजेपी पूरी तरह कन्फ्यूजन में आ गयी है। इसके बाद नेताओं के बयान लगातार बदल रहे हैं। कुछ खुलकर बोल रहे हैं तो कुछ मौन साधे हुए हैं।
दरअसल, आनंद मोहन की रिहाई पर बीजेपी का स्टैंड क्लियर नहीं है। इस मामले में हो रही राजनीति दुर्भाग्यपूर्ण है। बीजेपी के नेता उहापोह में हैं। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने राजनीतिक विसात पर जो दांव चला है, उसमें बीजेपी फंसती नजर आ रही है। यह भी कहा जा रहा है कि यदि कोर्ट से आनंद मोहन के पक्ष में यदि फैसला आता है तो महागठबंधन को ही इसका फायदा मिलेगा। यदि पक्ष में नहीं आता है तो महागठबंधन को और अधिक फायदा मिलेगा, क्योंकि आनंद मोहन को यदि फिर से जेल होता है तो राजपूत समाज की नाराजगी बीजेपी को बहुत अधिक महंगी पड़ जाएगी और फिर इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि चुनाव में इस समाज का वोट कहां जाएगा।
बता दें कि आनंद मोहन की रिहाई के खिलाफ पटना हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों जगह याचिका डाली गयी है। सुप्रीम कोर्ट में तो तत्कालीन दिवंगत डीएम जी कृष्णैया की पत्नी उमा कृष्णैया ने याचिका दी है। उन्होंने कहा है कि उनके पति के हत्यारे को वोट पाने के लिए रिहा किया गया है। अब यह मामला इतना हाईप्रोफाइल हो गया है कि आनंद मोहन की रिहाई के एक सप्ताह से अधिक समय हो गया है। इसके बाद भी वे मीडिया की नजरों से गायब हैं। मीडिया के सामने नहीं आ रहे हैं। उनके मन में धुकधुकी लगी हुई है कि 8 मई को क्या होगा ? दरअसल, आनंद मोहन मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तैयार हो गया है और 8 मई को सुनवाई की डेट निर्धारित है।
गौरतलब है कि इसी साल जनवरी में पटना में महाराणा प्रताप की जयंती मनायी गयी थी। इसका आयोजन जेडीयू एमएलसी संजय सिंह ने किया था। इस कार्यक्रम में नीतीश कुमार भी पहुंचे हुए थे। उनके सामने ही आनंद मोहन की रिहाई की मांग उठी थी। इसे नीतीश कुमार ने गंभीरता से लेते हुए कहा कि उस पर काम चल रहा है। इसके बाद युवा काफी उत्साहित हो गए थे। इतना ही नहीं, इस कार्यक्रम के जरिए राजपूत समाज में बिखरे नेताओं को एक मंच पर लाने का भी मैसेज दिया गया। दरअसल, राजपूत समाज के नेता भी अन्य जातियों की तरह बिखरे पड़े हैं। हर दल में आपको राजपूत नेताओं की बड़ी-बड़ी लॉबी मिल जाएगी। खासकर चुनाव के समय में ये लॉबी और अधिक एक्टिव हो जाती है। फिर तो सभी को एकजुट रखना पार्टी आलाकमान के लिए मुसीबत हो जाती है, इसलिए 2024 और 2025 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रम के माध्यम से एकजुट रखने का मैसेज दिया गया।
बहरहाल, 2000 के दशक में आनंद मोहन ने बिहार की राजनीति को दिशा देने की कोशिश की थी। बिहार पीपुल्स पार्टी के जरिए उन्होंने पूरे बिहार में तीसरा कोन बनाया था। आनंद मोहन ने जातिगत वोट बैंक को उस दौरान हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था। वे बिहार की सियासत के धुरी बन गए थे। इतना ही नहीं, उन्हें लोग उस समय मुख्यमंत्री फेस भी मानने लगे थे और आज भी युवा उनके दीवाने हैं। ऐसे में जब आनंद मोहन की रिहाई हुई तो भाजपा को डर सताने लगा कि इनके नाम पर राजपूत समाज का एकमुश्त वोट महागठबंधन को मिल सकता है। यह बात आते ही भाजपा को न उगलते बन रहा है और न निगलते बन रहा है। सांप-छछूंदर वाली स्थिति उत्पन्न हो गई है। ऐसे में अब सबकी नजर 8 मई पर है।