वो भी क्या दिन थे : छपरा में जब बनता था मॉर्टन चॉकलेट, बिहार ने पूरे देश को दी थी गजब की मिठास

PATNA (SMR) : बिहार ही नहीं, देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं ध्रुव गुप्त। पुलिस सर्विस में DIG बने। अब तक इनकी आधा दर्जन किताबें आ गयी हैं। पुलिसिया रौब के बीच इनके मन में हमेशा साहित्य की हर विधा अंकुरित-प्रस्फुटित होते रहा। अब तो उनके मन की उर्वर भूमि से गीत-गजल ही नहीं, लेख-आलेख, गीत-संगीत से लेकर कथा-कहानी, रिपोर्ट-रिपोर्ताज… और न जानें क्या-क्या, सब उपज रहे हैं। सोशल मीडिया के तो ये बेताज बादशाह हो गए हैं। उन्होंने अपने इस आलेख में मॉर्टन चॉकलेट की याद दिलायी है। वो भी क्या दिन थे, जब बिहार ने पूरे देश को गजब की मिठास दी थी। इसे पढ़ेंगे तो पुराने दिनों की मिठास भी महसूस करेंगे। आप इसे यहां अक्षरशः पढ़ें… !!! 

ज जब कभी बच्चों के हाथों में रंग-बिरंगे पैक वाले चॉकलेट देखता हूं, मन टॉफी के पुराने दौर में लौट जाता है। तब कुछ पैसों से लेकर कुछ आनों तक में मिलने वाली छोटी टॉफियां हर बच्चे का सपना हुआ करती थीं। पिछली सदी के आठवें दशक तक टॉफी का सबसे प्रसिद्ध ब्रांड हुआ करता था मॉर्टन। 

बिहार के छपरा जिले के मढ़ौरा की फैक्ट्री में बनने वाली दूध, चीनी तथा नारियल के महीन बुरादे वाली मुलायम क्रीम और आहिस्ता-आहिस्ता मुंह में घुलने वाली कड़क लैक्टोबॉनबॉन मॉर्टन के दो सबसे लोकप्रिय टॉफी उत्पाद थे। जिला ट्रेनिंग के दौरान 1980 में जब मेरी पोस्टिंग छपरा में हुई थी तो सबसे पहले मैं मॉर्टन की फैक्ट्री देखने ही गया था। वह एक सपने के सच होने जैसा था। फैक्ट्री की रौनक तब देखने लायक थी। वहां पहले गरम-तरल और फिर बने-बनाए टॉफी खाकर तृप्त हुआ था। 

1929 में एक अंग्रेजी कंपनी सी एंड ई मॉर्टन द्वारा स्थापित इस फैक्ट्री पर उस वक़्त बिड़ला समूह का आधिपत्य था। उग्र श्रमिक आंदोलनों के दबाव में यह फैक्ट्री धीरे-धीरे आधुनिकीकरण की दौड़ में पिछड़ती चली गई। अंततः साल 2000 में यह हमेशा के लिए बंद हो गई। पटना से अपने पैतृक शहर गोपालगंज जाते वक्त रास्ते में पड़ने वाले मॉर्टन फैक्ट्री के भग्नावशेष देखकर आज भी मन पिघल जाता है।

मॉर्टन अब इतिहास है। आज के बच्चों और वयस्कों के लिए भी देशी-विदेशी चॉकलेट और टॉफियों की अनगिनत खूबसूरत और स्वादिष्ट किस्में उपलब्ध हैं, लेकिन कुछ ही दशकों पहले तक टॉफी मतलब मॉर्टन ही होता था। इस मॉर्टन ने हमारी और देश की कई-कई पीढ़ियों के जीवन में रस और स्वाद घोला था। शुक्रिया, मॉर्टन ! 

(नोट : यह संस्मरण साहित्यकार ध्रुव गुप्त के फेसबुक वाल से लिया गया है। इसमें उनके निजी विचार हैं।)

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