14 अप्रैल आंबेडकर जयंती पर विशेष : आखिर किनके हैं बाबा साहेब, चुनावी साल में खूब याद आ रहे हैं…

PATNA (Rajesh Thakur)। आखिर बाबा साहेब किनके हैं ? सवर्णों के या गैर सवर्णों के ? राजनीतिक दलों के या गैर राजनीतिक दलों के ? सत्ता पक्ष के या विपक्ष के ? गरीबों के या अमीरों के ? दलितों के या महादलितों के ? ओबीसी के या ईबीसी के ? इसी तरह के कई सवाल आज बिहार के सियासी बाजार में तैर रहे हैं और ये सवाल मौजूँ भी हैं। हम बात कर रहे हैं संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर की, जिनकी 14 अप्रैल यानी आज जयंती है। आज बाबा साहब जिंदा होते तो 134 साल के हो गए होते। उनका जन्म 1891 में हुआ था।

रअसल, बिहार चुनावी साल से गुजर रहा है। इसी साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। वोटों के जुगाड़ में सारे दल अपनी-अपनी हैसियत और ताकत के अनुसार लगे हुए हैं। विधानसभा चुनाव को देखते हुए पूर्व मुख्यमंत्री भारत रत्न जननायक स्व कर्पूरी ठाकुर की जयंती पर तमाम राजनीतिक पार्टियों ने कुछ इसी अंदाज में उन्हें याद किया था। अब कुछ वैसा ही अंदाज संविधान निर्माता और भारत रत्न बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर की जयंती पर देखने को मिल रहा है।

डॉ आंबेडकर की जयंती को लेकर बिहार की राजधानी पटना समेत तमाम जिलों में कार्यक्रम आयोजित किए गए। ये कार्यक्रम दो दिन पहले से आयोजित किये जा रहे हैं। इसमें सत्ता पक्ष में शामिल घटक दल भाजपा, जदयू, रालोमो तथा लोजपा (आर) शामिल रहे तो महागठबंधन में शामिल राजद, कांग्रेस के अलावा वामदलों ने भी बाबा साहेब को याद किया। भारतीय जनता पार्टी तो सभी दलों से आगे बढ़कर वह 14 अप्रैल से 25 अप्रैल तक कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। जदयू ने आंबेडकर जयंती को लेकर 13 अप्रैल को भीम संवाद का भव्य आयोजन किया। सियासी पंडितों की मानें तो आज बाबा साहेब की जयंती मनाने की सियासी दलों में होड़ मची है। दलित वोटों के जुगाड़ में बिहार की सियासत में तमाशा मचा हुआ है। सबसे खास बात तो यह है कि सब कह रहे हैं कि बाबा साहेब की राह पर सबसे ज्यादा हम चल रहे हैं। साथ ही वे विरोधियों पर कटाक्ष भी कर रहे हैं। वे सब बाबा साहेब को अपनी-अपनी झोली में डालने की होड़ में लगे हैं। उनके नाम का झंडा उठाए सड़कों पर दौड़ लगा रहे हैं।

पटना में 13 अप्रैल को जदयू ने मनाया भीम संवाद।

सियासी पंडित यह भी कहते हैं कि भले ही तमाम राजनीतिक दल बाबा साहेब को पार्टियों के खांचों में बांटने की कोशिश करते हैं, लेकिन यह नामुमकिन है। डॉ आंबेडकर को खांचों में कभी नहीं बांटा जा सकता है। वो न किसी खास जाति के लिए थे, न किसी वर्ग के लिए और न ही किसी दल के लिए। वो तो उस संविधान के थे, जिसे लिखकर उन्होंने हर भारतीय को बराबरी का हक, इंसाफ का रास्ता और सम्मान की जिंदगी का सपना दिया। उन्होंने कहा था- शिक्षा लो, संगठित हो, संघर्ष करो। लेकिन हमारे नेताओं ने तो इसका मतलब ही बदल दिया। शिक्षा की जगह प्रचार, संगठन की जगह गुटबाजी और संघर्ष की जगह वोटों की जुगाली!

बाबा साहेब ने सपना देखा था एक ऐसे भारत का, जहां न कोई ऊंच हो, न कोई नीच हो, लेकिन राजनीतिक दलों ने तो वोटों के लालच में उनके सपने को ही नीलाम कर डाला। उनके नाम पर मूर्तियां खड़ी कर दीं, स्मारक बना दिए, उनके नाम पर सड़कों का नामकरण कर दिया, कार्यक्रमों का आयोजन कर दिए और बस हो गया काम। संविधान की बात करो, तो ये लोग टाल जाते हैं। समता की बात करो, तो मुंह फेर लेते हैं। इंसाफ की बात करो, तो सियासी समीकरण गिनाने लगते हैं।

बहरहाल, कर्पूरी ठाकुर की तरह बाबा साहेब को भी आज राजनीतिक दलों ने अपनी सियासी दुकानों को चमकाने के लिए ‘साइनबोर्ड’ बना लिया है। अगर बाबा साहेब आज जिंदा होते तो बेशक यह जरूर कहते कि ‘मेरे नाम का ये ड्रामा बंद करो! मेरे सपनों का भारत बनाओ, जहां हर इंसान को इंसान समझा जाए।’ लेकिन अफसोस, बाबा साहेब की आवाज किताबों में सिमट गयी, और सियासत में उनके नाम का सिर्फ शोर बच गया है।