सच बोलना गुनाह है : पत्रकार की हत्या से उठ रहे सवाल, ईमानदार पत्रकारिता की राह पर अनंत मुश्किलें

PATNA (RAJESH THAKUR) : देश में एक और पत्रकार की हत्या हो गयी। उन्हें काफी निर्मम तरीके से मारा गया है। एक जनवरी को जब पूरा देश नए साल की खुशी में झूम रहा था तो छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की कुछ असामाजिक तत्वों ने हत्या कर सैप्टिक टंकी में शव को छिपा दिया। उन्होंने ईमानदारी से कभी समझौता नहीं किया और इसी ईमानदारी ने उनकी जान ले ली। हत्या का आरोप ठेकेदार पर लग रहा है। वर्षों पहले इसी प्रकार की वारदात बिहार में भी हुई थी। तब सीवान में हिंदुस्तान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या हुई थी। एक सप्ताह पहले पूर्णिया में प्रेस फोटोग्राफर को भी मार डाला। फिर मुकेश बस्तर के अकेले ऐसे पत्रकार नहीं है, जिनकी हत्या खबरों के चलते की गयी हो। इससे पहले पत्रकार विनोद बख्शी, मोहन राठौर, नेमीचंद जैन और सांई रेड्डी की भी हत्या हो चुकी है। इन चार पत्रकारों में दो की हत्या तो नक्सलियों ने की है। वहीं, जिस तरह छत्तीसगढ़ के बीजापुर स्थित बस्तर में कस्बाई पत्रकार की हत्या की गयी है, उससे पुलिस प्रशासन से लेकर सरकार तक कठघरे में है। उन पर सवाल उठने लगे हैं। इसकी देशभर में निंदा हो रही है। इस वारदात पर देश के दो वरीय पत्रकारों पंकज मुकाती और पुष्यमित्र ने भी सवाल खड़े किए हैं।

‘बेईमानी की माला जपने वालों के साथ तंत्र’
बिहार और मध्य प्रदेश के कई अखबारों के स्थानीय संपादक रहे पंकज मुकाती ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा है- ‘पत्रकारिता करना बेहद कठिन है। ईमानदार पत्रकारिता में पैसा नहीं है। ईमान वाली पत्रकारिता की राह पर अनंत मुश्किलें। ये मुश्किलें मुफलिसी तो देती ही हैं। कभी खबरें जानलेवा भी बन जाती हैं। छत्तीसगढ़ के बीजापुर में एक पत्रकार की जिंदगी उसकी ईमानदार खबर ने ले ली। साहस से भरे युवा पत्रकार मुकेश चंद्रकार की हत्या कर दी गयी। शव उसी ठेकेदार के परिसर में मिला, जिसके भ्रष्टाचार की खबरें मुकेश ने उजागर की। सड़क निर्माण में भ्रष्टाचार के खुलासे करने वाले पत्रकार को मारकर सेप्टिक टैंक में दफना दिया। ये हत्या ठेकदारों, कारोबारी घरानों को सरकारी तंत्र से मिले हौसले का नतीजा है। ये हत्या दर्शाती है कि पूरा तंत्र एक सड़ांध मारता सेप्टिक टैंक है। बातें लोकतंत्र की हैं, पत्रकारिता की आजादी की हैं, सुशासन की हैं, पर तंत्र सिर्फ बेईमानी की माला जपने वालों के साथ खड़ा है।’

तंत्र ‘अपना’ आतंक कब करेगा खत्म
वे आगे लिखते हैं- ‘ये वही बस्तर है, जहां केंद्रीय गृह मंत्री ने मार्च 26 तक नक्सलियों के खात्मे का ऐलान किया है। पर तंत्र का पैदा किया अपना आतंक कब खत्म होगा ? मुकेश को मैं सीधे तौर पर नहीं जानता। मैंने उन्हें उनके यूट्यूब चैनल में देखा था, जिसकी शुरुआत में ही वह कहते थे कि आप बस्तर जंक्शन देखना शुरू कर चुके हैं। चकाचौंध वाली पत्रकारिता के दौर में बस्तर के घने जंगलों में किसी युवा को पत्रकारिता करते देखकर एक सम्मान उनके प्रति रहा। वे खांटी पत्रकार थे जो सच की आवाज बुलंद करता हो। वे वातानुकूलित स्टुडियो में बैठकर देश जहान के दुखों की चिंता करने वाली पत्रकारिता की कौम से अलग ग्राउंड जीरो पर पसीना बहाने वाले पत्रकार थे। मुकेश के साथ जो हुआ, वो रोंगटे खड़े करने वाला है।’

‘… तब खुलती हैं हमारी आंखें’
दूसरी ओर, वरीय पत्रकार व लेखक पुष्यमित्र सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखते हैं- ‘यह सिर्फ बस्तर की पत्रकारिता की कब्र नहीं है, यह पूरे भारत की ग्रामीण और कस्बाई पत्रकारिता का वह सच है, जिसकी तरह से हम सब आंखें मूंदे रहते हैं। जब किसी पत्रकार की हत्या होती है, तब हमारी आँखें खुलती हैं। बिहार में भी राजदेव रंजन की हत्या इसी तरह हुई। कुछ साल पहले निजी अस्पतालों की व्यवस्था की पोल खोलने वाले एक पत्रकार की भी इसी तरह हत्या हुई थी। अभी इसी हफ्ते पूर्णिया में एक प्रेस फोटोग्राफर की हत्या के पीछे भी उसकी पत्नी ने यह वजह बतायी कि एक आपराधिक मामले में आरोपी की तस्वीर उस फोटोग्राफर ने अपने अखबार में छाप दी थी। यह अन पॉपुलर और पॉलिटिकली इनकारेक्ट ओपिनियन हो सकता है, मगर सच यही है कि दिल्ली में बैठकर सरकार के खिलाफ आप निगेटिव खबर लिखने का खतरा उठा सकते हैं। पटना में अपनी खबरों से सत्ता पर सवाल कर सकते हैं। मगर गांव-कस्बे के सत्ताधारियों के खिलाफ सवाल उठाना कई दफे जानलेवा हो जाता है। इसकी वजह क्या है और समाधान क्या होगा, यह हम सबको सोचना होगा।