DELHI / BIHAR (APP) : ‘सदियों की ठंडी, बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है। दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है… ‘ यह पंक्ति है राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की। ये राष्ट्रीय कवि कहीं और के नहीं थे, बल्कि बिहार के थे। तब बेगूसराय जिला का गठन नहीं हुआ था। उनका पैतृक गांव सिमरिया है। रामधारी सिंह दिनकर भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कही बातें और उनकी रची कविताएं आज भी हर बिहारी और हर भारतीय का सीना चौड़ा कर देता है। वे किसी परिचय के मोहताज नहीं है। रश्मिरथी से लेकर उर्वशी तक उनके काव्य-संग्रह लोगों के मस्तिष्क में अमिट रूप से दर्ज है। उनकी लेखनी की चमक आज भी बरकरार है। दिनकर जी पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है, लेकिन यहां उनके 5 किस्सों को जानते हैं। 

किस्सा  नंबर – 1 : रामधारी सिंह दिनकर की ‘उर्वशी’ समेत कुछ रचनाओं को माइनस कर दिया जाए तो उनकी मैक्सिमम रचनाएं वीर रस से ओतप्रोत है। ​कवि भूषण के बाद रामधारी सिंह दिनकर वीर रस के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। ये देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री केवी सहाय तक से जुड़े हुए थे। लेकिन यहां बात करते हैं पंडित नेहरू की। आज भी जब बिहार या देश में बदलाव की राजनीति चलती है तो दिनकर की पंक्ति को आज के राजनेता रटते नजर आते हैं कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। दिनकर की ताकत ही यही थी कि वो न तो राजनीतिक दलों या विचारों के नफ़े-नुकसान के गणित से अपना ईमान तय करते थे और न ही किसी की डफली बजाते थे। उनका पंडित नेहरू से काफी नजदीकी के रिश्ते थे। नेहरू के प्रधानमंत्री रहते 1952 से लेकर 1964 तक ये कांग्रेस के कोटे से राज्यसभा सांसद बने। लेकिन, जब भारत, चीन से लड़ाई हारा तो उन पर भी निशाना साधने में दिनकर जी पीछे नहीं रहे। उन्होंने नेहरू की शांति नीति के खिलाफ सदन में खड़े होकर जोरदार ढंग से कविता सुनायी। 

किस्सा नंबर – 2 : दिनकर की रश्मिरथी रचना कालजयी मानी जाती है। उसकी एक पंक्ति है- ‘चल रहा महाभारत का रण, जल रहा धरित्री का सुहाग, फट कुरुक्षेत्र में खेल रही, नर के भीतर की कुटिल आग…’ दिनकर ने इन पंक्तियों को 1954 में लिखा था। वे अपनी कविताओं से अंग्रेजों को भी ललकारते रहते थे। इसी वजह से वे अंग्रेजों के कोपभाजन भी बनते थे। वे अंग्रेजों के निशाने पर किस कदर थे, इसका अंदाजा आप सहज लगा सकते हैं कि महज 5 साल की नौकरी में 22 बार तबादला किया गया। ये तबादले 1938 से 1943 के बीच किये गये थे। दिनकर ने अंग्रेजों के साथ ही सामाजिक और आर्थिक विषमता और शोषण के खिलाफ भी ढेर सारी कविताओं की रचना की। 

किस्सा नंबर – 3 : रामधारी सिंह दिनकर केवल कवि ही नहीं थे। वे अच्छे वक्ता थे, अच्छे प्रशासक थे, साथ ही अच्छे एजुकेशन अफसर थे। उन्हें 1964 में भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया था। वे पटना में रजिस्ट्रार भी रहे थे। वे भागलपुर विश्वविद्यालय के छठे कुलपति थे। इस पद पर वे लगभग 16 माह तक रहे थे… इसके पहले राज्यसभा के सांसद रहे थे। तब दिल्ली में ही रहते थे। कहा जाता है कि जब वे राज्यसभा सांसद थे, तब उन्हें डायबिटीज हो गई थी। वे ब्लड प्रेशर की चपेट में आ गए थे। इसे देखते हुए तत्कालीन सीएम केवी सहाय ने दिनकर जी को बिहार लोकसेवा आयोग का सदस्य बनाना चाहा। इनके पास प्रस्ताव भी भेजा, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। तब मुख्यमंत्री ने मजाक में ही उन्हें एक अजीब तरह का शाप दे दिया। उस शाप की चर्चा लोग गुस्से से नहीं, बल्कि मजे लेकर करते हैं। और आज भी करते नजर आते हैं। दरअसल, तत्कालीन मुख्यमंत्री केवी सहाय ने दिनकर जी को मजाक में कह दिया कि आपको मेरा शाप है कि आप वाइस चांसलर हो जाएं। कहा जाता है कि यह शाप उन्हें लग गया और रामधारी सिंह दिनकर भागलपुर विश्वविद्यालय के वीसी बन गए।   

किस्सा नंबर – 4 : 23 सितंबर को जन्म लेने वाले रामधारी सिंह दिनकर तब भागलपुर यूनिवर्सिटी में वीसी थे। कहा जाता है कि जब वे वहां कुलपति बने थे, उस समय यह विश्वविद्यालय काफी शांत और संयत समझा जाता था। सबसे खास बात तो यह थी कि दिनकर जी के होम टाउन में यह विश्वविद्यालय अवस्थित था। उस समय बेगूसराय जिला का सृजन नहीं हुआ था। तब उनका पैतृक घर सिमरिया मुंगेर जिला में ही पड़ता था। और यह जिला भागलपुर यूनिवर्सिटी में आता था… बता दें कि भागलुपर विश्वविद्यालय से ही उन्हें मानद डी. लिट् की उपाधि मिली थी। ऐसे में जब उनके पास ऑफर आया कि उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय का वीसी बनाया जा रहा है, तो इसे उन्होंने एक झटके में स्वीकार कर लिया। हालांकि, बाद में उन्हें लगा कि उन्होंने गृह विश्वविद्यालय में आना उनकी भूल थी। दरअसल, जिस समय ये वीसी बने थे, उस समय बिहार परीक्षा में कदाचार को लेकर बदनाम था। भागलपुर विश्वविद्यालय इससे अलग नहीं था। उस समय कुछ असमाजिकतत्व टाइप के लड़के छुरा दिखा कर वीक्षकों को डरा-धमकाकर नकल करना चाहते थे। इतना ही नहीं, कहा जाता है कि कहीं-कहीं तो लाउडस्पीकर से सवालों के हल कराए जाते थे। प्रश्नों के उत्तर लिखाये जाते थे। एग्जाम सेंटर से पर्यवेक्षक तक को भगा दिया जाता था। यह सब देखकर कुलपति बने दिनकर जी को बर्दाश्त नहीं हुआ… इसके बाद उन्होंने कड़ा एक्शन लेते हुए कई पेपर रद्द कर दिए। कुछ के सेंटर बदल दिए। इसके लिए उन्हें काफी विरोध झेलना पड़ा, लेकिन वे इस विरोध से डगमगाए नहीं, और डटे रहे। लेकिन, तब उन्हें लगा था कि होम टाउन में आना उनकी भूल थी। बता दें कि भागलपुर में सेंट्रल लाइब्रेरी की स्थापना भी दिनकर जी ने ही की थी और उन्होंने अपनी कविता ‘हिमालय चोटी’ की रचना भी भागलपुर में ही की थी। 

किस्सा नंबर – 5 : यह किस्सा मारपीट और सिंडिकेट से जुड़ा हुआ है और इसमें दिनकर ने मुखिया की भूमिका निभाकर जबरदस्त ढंग से पंचायती की थी।  दरअसल, एक बार गांव वालों और विश्वविद्यालय छात्रों के बीच मारपीट हो गई थी। मामला सुलझ ही नहीं रहा था।  दोनों ओर से तनातनी चरम पर थी।  कोई झुकने को तैयार नहीं था।  फिर मामला दिनकर जी के पास पहुंचा। तब उन्होंने पहले छात्रों से बात की। फिर गांव वालों से बात की। तब जाकर मामला फरियाया।  इतना ही नहीं, इसी तरह का मामला एक बार सिंडिकेट में हो गया था। कहा जाता है कि सिंडिकेट की बैठक में आए दिन निरर्थक बहस होती रहती थी, जबकि दिनकर जी चाहते थे कि कोई भी निर्णय सर्वसम्मति से हो, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता था। तब इसका भी दिनकर जी ने ही हल निकाला था। दरअसल, सिंडिकेट की बैठक में जैसे ही फालतू बहस शुरू होती तो वे कक्ष से बाहर निकलकर टहलने लगते। बाद में सिंडिकेट से जो निर्णय होता, उसे वे मान लेते थे। तो ऐसे थे देश और बिहार के गौरव रामधारी सिंह दिनकर। बेगूसराय और पटना के अलावा भागलपुर यूनिवर्सिटी के हिंदी पीजी विभाग में राष्ट्रकवि दिनकर की प्रतिमा स्थापित है और उनके विचार तो आज भी प्रासंगिक हैं। 

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