DELHI (SMR) : दुनिया का हर कोना घूम लीजिए, लेकिन अपनी रसोई की बात ही अलग मिलेगी। हमारी तो बातचीत में भी घी-शक्कर घुल जाता है। छोटी-मोटी खुशी में तो लड्डू फूटने लगते हैं। अब इतनी मिठास रग-रग में घुली हो तो बात कालाजामुन की करनी लाजमी है। रंग-रूप और नाम तो इसके कई हैं, लेकिन स्वाद लगभग एक जैसा है। अब बारीकी में जाएंगे तो स्वाद बिल्कुल इतिहासकारों की राय जैसा जुदा-जुदा महसूस होगा। लेकिन बड़ा सवाल है, आखिर यह कालाजामुन कहां से आया? आइए जानते हैं वरीय पत्रकार प्रदीप से… ये फिलहाल दिल्ली के एक बड़े मीडिया हाउस में पोस्टेड हैं… कालाजामुन से संबंधित यह आलेख वरीय पत्रकार प्रदीप के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से अक्षरश लिया गया है..
प्रदीप लिखते हैं- ‘कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये तुर्क की मिठाई है। 1000 ईसवी के आसपास तुर्कों के कालाजामुन ने हिंदुस्तान में कदम रखा। लेकिन, तुर्क इसे गुलाबजामुन कहते थे। अब ये तुर्क कौन थे, जो इतनी स्वादिष्ट मिठाई के जनक बन गए ? चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर रहने वाली लड़ाकू और बर्बर जाति थी। ये उमैयावंशी शासकों के संपर्क में आने के बाद इस्लाम धर्म मानने लगे।
कालाजामुन के जन्म की दूसरी थ्योरी आती है ईरान से। यहां लुकमत-अल-कादी नाम की एक मिठाई बनती है। दिखने में तो बिल्कुल गुलाबजामुन जैसी है, लेकिन होती थोड़ी अलग है। इतिहासकारों का कहना है कि गुलाबजामुन का जन्म यहीं से हुआ। भारत में आने के बाद इसने खुद को मावे के साथ निखार लिया।

लुकमत-अल-कादी में आटे की गोलियों को तलने के बाद शहद की चाशनी में डुबोकर रखते हैं। फिर चीनी (चीनी से पहले गुड़) छिड़ककर परोसा जाता है। मुगलकाल में गुलाबजामुन को खूब पसंद किया जाता था। भाषा के जानकारों की मदद से इसे ईरानी बनाने की खूब जोरअजमाइश हुई। गुलाब ईरानी शब्द है, ईरानी बोले तो फारसी। इसमें गुल का अर्थ होता है फूल और आब का मतलब पानी। गुलाबजामुन तैयार करने में गुलाब जल और पंखुड़ियों का इस्तेमाल होता था। जामुन की तरह इसका रूप-रंग था, इसलिए नाम पड़ गया गुलाबजामुन।
खानपान में धनी हम हिंदुस्तानी कैसे इतने रसीले गुलाबजामुन को विदेशी मान लेते। बस, इसी बात पर हमने भी इसे अपने परिवार का बताने में देर नहीं की। गुलाबजामुन के जन्म की तीसरी थ्योरी थोड़ी जटिल है। जटिल मतलब इसका जन्म हिंदुस्तान में ही गलती से हुआ था। बिल्कुल रामायण के कुश की तरह।

कहानी है कि एक बार शाहजहां का खानसामा कुछ बना रहा था। उससे गलती हुई और कालाजामुन बन गया। खानासामा इसके रंग-रूप की वजह से शाहजहां की थाली तक लेकर जाने की हिम्मत नहीं जुटा सका। लेकिन, शाही सेवकों की जीभ ने इसके अलौकिक स्वाद को चखा और सूचना बादशाह तक पहुंचा दी। बादशाह ने इसे जब चखा तो खानसामा के भी मुरीद हो गए। बस यहीं से कालाजामुन मशहूर हो गया।
इसी तरह, कालाजामुन के जन्म को लेकर जितने मत हैं, उतने ही इसके नाम भी हैं। कुछ जगह इसे लालमोहन कहते हैं। कालाजाम तो हम-आप भी कई बार बोल देते हैं। बांग्लादेश में तो पांटुआ, पश्चिम बंगाल में गुलाबजोम या गोलापजामुन और कुछ जगह तो कालोजाम भी कहा जाता है। लेकिन, सबसे प्यारा नाम दिया है मालदीव ने। यहां इसे गुलाबजानू बुलाते हैं।