ब्रजकिशोर दुबे नहीं रहे… जिसने भी सुना भौंचक रह गए, निराला बिदेशिया की कलम से…

PATNA (SMR) : ब्रजकिशोर दुबे किसी परिचय के मुहताज नहीं। उन्हें 2017 में संगीत नाटक अकादमी की ओर से पुरस्कार मिला था। राष्ट्रपति ने उन्हें सम्मानित किया था। बिहार सरकार की ओर से 2013 में वरिष्ठ लोकगायक का भी उन्हें पुरस्कार मिला था। ऐसे थे भोजपुरी कलाजगत के सिरमौर ब्रजकिशोर दुबे। लेकिन, 14 नवंबर को जब पूरा देश बाल दिवस मना रहा था तो शाम में अनहोनी वाली खबर आयी। खबर थी ब्रजकिशोर दुबे अपने दोस्त के घर में मृत पाए गए। जिसने भी इस खबर को सुना, वह भौंचक हो गया। कला जगत के सशक्त हस्ताक्षर व वरीय पत्रकार निराला बिदेशिया ने भी उन्हें अपनी लेखनी से श्रद्धासुमन अर्पित किये हैं। यह आलेख उनके सोशल अकाउंट से अक्षरशः लिया गया है… 

ब्रजकिशोर दुबे नहीं रहे। भोजपुरी गीत-संगीत की दुनिया से प्रेम-रुचि बढ़ने की सबसे बड़ी और पहली वजह थे वे। जो थोड़ा बहुत जान सका भोजपुरी गीत-संगीत की दुनिया में, उसमें उनकी मेंटरिंग, उनसे हुई अनेक बार की बातचीत ही गुरु की भूमिका में रही। संभवत: 1995 में पहली बार मिला था उनसे। पटने में। एक चाय दुकान पर। वे चाय पी रहे थे अपने एक दोस्त के साथ और लोगबाग घेरकर उन्हें सुन रहे थे। उनकी बिंदास और ठहठहाट वाली हंसी, लोगों को उन तक स्वतं: खिंच लेती थी। 

तब तक संपादक के नाम पत्र लिखता था। पर, दुबेजी से मिला तो पहली बार किसी बड़े अखबार में फीचर भी लिख मारा। उन पर ही लिखा। पहली बार उसके एवज में पैसा मिला। तब इंटर में ही पढ़ता था। मैं इंटर का छात्र था और ब्रजकिशोर दुबे मेरे पिता की तरह। पर, हमारी दोस्ती हो गयी। पटना पुनाईचक में रहता था। वह भी वहीं रहते थे। उनके घर चला जाता था। घंटों गप्पबाजी होती। उनसे हुई बातचीत की ​आडियो रिकार्डिंग तलाश करूं तो टुकड़े-टुकड़े में पांच घंटे की रिकार्डिंग तो होगी ही. वे डेरा बदले, वहां भी मेरी बैठकी लगती। जब कभी खूब लंबी बतकही करनी होती, वे राजा बाजार मेरी मौसी के घर आते। हम दोनों बैठकी जमाते। बाद में मेरी मौसी दानापुर रोड चली गयी, तो वे वहां भी आते। जब मैं पटना में रहता और हम दोनों की बैठकी तय हो जाती। उनसे जुड़े संस्मरणों को सहेजूं तो एक किताब बन जाये। 

ब्रजकिशोर दुबे का मतलब होता है, भोजपुरी के विलक्षण गीतकार। उनके बाद भोजपुरी सिनेमा को कोई कायदे का गीतकार नहीं मिला। पर, इन सबसे इतर वे मेरे लिए सकारात्मक उर्जा के स्रोत थे। जब कभी तनाव में आता, उन्हें फोन करता। खूब बात होती। उनसे बात करने का मतलब होता, हंसकर खुद को खुशी से भर लेना। अपने को रिचार्ज कर लेना। पर, इधर एकाध सालों से वे गहरी उदासी में रहने लगे थे। जब भी बात होता, कहते कि बहुत बात बा निराला। केतना बताईं। उनकी परेशानी जानता था। कोशिश कर उन्हें गीत-संगीत की दुनिया में वापस लाने की कोशिश करता। जब कभी एकदम वे गीत-संगीत पर बात करने को तैयार नहीं होता, पटना सिर्फ उनसे ही मिलने जाता। उनके साथ बैठकी लगाकर फिर से उन्हें गीत-संगीत की दुनिया में ही लाने की कोशिश करता। उनके पास किस्सों का पिटारा था। उनके खुद के ही सभी गीतों की सिनेमा में दिखाये गये सीन से इतर गीत लिखने की भी दिलचस्प कहानियां थीं। जैसे उनके सदाबहार राखी गीत की ही बात करें। 

बिहारी बाबू फिल्म में वह गीत आया था और तब से हर साल राखी में भोजपुरी के गीत आते ही हैं, पर वैसा गीत फिर बन न सका। लिखा नहीं जा सका। उस गीत के बनने की कहानी दिलचस्प है। ब्रजकिशोर दुबे तब बिहार में लोकगीत गाते थे। रेडियो से जुड़े हुए थे। मुखियाजी के चौपाल में रिझन भाई के रूप में आते थे, रामेश्वर सिंह कश्यप के नाटक लोहा सिंह में कविजी के रूप में। हुआ यह कि ब्रजकिशोर दुबे की एक बार पटने में दिलीप बोस से मुलाकात हुई। दिलीप बोस यानी भोजपुरी की कालजयी फिल्म गंगा किनारे मोरा गांव के निर्देशक। दिलीप बोस को बाद में बिहारी बाबू फिल्म के निर्देशन का जिम्मा मिला। बात जनवरी 1985 की है। दिलीप बोस ने ब्रजकिशोर दुबे को कहा कि आओ बम्बई तुम, एक बार देखते हैं तेरे लिए कोशिश कर के। ब्रजकिशोर दुबे 12 जनवरी को मुंबई के लिए निकले। 14 जनवरी यानी सकरात के दिन बम्बई पहुंचे। दिलीप बोस ने रूकने का इंतजाम करवाया। शाम को सिचुएशन समझा दिये कि देखो कहानी में सिचुएशन यह है, एक गीत इस सिचुएशन पर लिखकर रखो। 16 जनवरी को चित्रगुप्त जी तुम्हारे साथ बैठेंगे। देख लेना, अच्छे से। चित्रगुप्त के साथ मीटिंग है, याद रखना है। ब्रजकिशोर दुबे ने गीत लिखना शुरू किया। 16 को पहुंचे चित्रगुप्तजी के यहां। 

दिलीप बोस ने कंधा सहलाते हुए कहा कि दुबे, मेरे बस में यहीं तक था कि तुम्हें एक चांस दूं, चित्रगुप्तजी तक पहुंचा दूं बाकि आगे तो अब तेरी मेहनत और तेरा भाग्य। ब्रजकिशोर दुबे चित्रगुप्तजी के सामने गये। लूंगी पहनकर बैठे चित्रगुप्तजी ने कहा कि तुम्हे सिचुएशन दिया गया था, लिखे हो कुछ। ब्रजकिशोर दुबे ने कहा कि लिखे हैं, थोड़ा गाकर ही सुना दे क्या? ब्रजकिशोर दुबे ने पहली पंक्ति सुनायी-राखी हर साल कहेले सवनवा में। चित्रगुप्तजी ने रूकने का इशारा किया। ब्रजकिशोर दुबे को लगा कि उन्हें पसंद नहीं आयी। चित्रगुप्त उठे अपनी जगह से। कंधे पर हाथ रखकर बोले, तुममें संवेदना है। गीतकार में संवेदना का होना जरूरी होता है। कितने अंतरे का लिखे हो? ब्रजकिशोर दुबे ने कहा कि 15 अंतरे का। चित्रगुप्त ने पूछा कि इतना लंबा क्यों? दुबेजी ने कहा कि इसलिए कि इसमें जो पसंद आये, छांटकर रख ले। चित्रगुप्त ने फिर से कंधे पर हाथ फेरा-कहा ​कि चलो अभी सीटिंग करते हैं। दिलीप बोस एकटक दुबेजी को देखे जा रहे थे। चित्रगुप्त ने तुरंत सीटिंग की। बिहारी बाबू फिल्म का सारा ​गाना लिखने को दुबेजी को कहा गया। चलते हुए ​चित्रगुप्त ने कहा कि दुबे, संवेदना बचा कर रखना। और जाओ अब कहीं भी जाकर कहना कि तुम चित्रगुप्त के साथ सीटिंग किये हो, किसी को भाव देने के लिए यही काफी होगा। मनहर उधास और अल्का याज्ञनिक की आवाज में गीत की रिकार्डिंग हुई. हर गीत से जुड़ी ऐसी दिलचस्प कहानियां हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *