————– ध्रुव गुप्त —————
(मानसून बिहार में सक्रिय है। बरसात हो रही है। इसके साथ ही कजरी का मौसम आ गया है… कजरी पर लिखा गया यह खास आलेख वरीय पुलिस अधिकारी व साहित्यकार ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से लिया गया है। यह उनके निजी विचार हैं। )
बरसात की शुरूआत के साथ कजरी का मौसम आ गया है। कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित लोकगायन की वह उपशास्त्रीय शैली है जिसमें कोमल मानवीय भावनाओं की कई-कई परतों की अभिव्यक्ति संभव है। इसके द्वारा अविवाहित लड़कियां पेड़ों की डालियों में लगे झूलों में आकाश नापने की कोशिश करती हुई वर्षा और हरियाली के प्रति उल्लास व्यक्त करती हैं। विवाहित स्त्रियां परदेश गए पतियों के लिए विरह-वेदना प्रकट करती हैं।
नवविवाहिताएं मायके में छूट गए रिश्तों की उपेक्षा का दर्द गाती हैं। स्त्रियों द्वारा समूह में गाए जाने वाली कजरी को ढुनमुनिया कजरी कहते है। कहा जाता है कि कजरी का जन्म मिर्जापुर और बनारस के गांवों में हुआ था। विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी का कुछ अलग ही अंदाज़ है। कहावत भी है कि ‘लीला रामनगर की भारी, कजरी मिर्जापुर सरनाम‘। मिर्जापुरी कजरी में वर्षा की शीतलता और विरह के ताप के साथ सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास-खटास और मस्ती का रंग भी घुला होता है।
बदलते समय के साथ लोक संगीत के दूसरे प्रारूपों में कई बदलाव आए, लेकिन कजरी जस की तस रही। कजरी गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी के सूफी कवि अमीर ख़ुसरो की बहुप्रचलित रचना ‘अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया’ है। अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फर का एक कजरी गीत ‘झूला किन डारो रे अमरैया’ आज भी गाया जाता है। भारतेन्दु ने ब्रजभाषा और भोजपुरी में कुछ कजरी गीतों की रचना की थी। लगभग सभी शास्त्रीय गायकों और वादकों ने कजरी के उल्लास और की पीड़ा को स्वर दिए हैं।
गिरिजा देवी की आवाज़ और बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में कजरी की वेदना शिद्दत से महसूस होती है। भोजपुरी गायिका विंध्यवासिनी देवी और शारदा सिन्हा के गाए कजरी गीत हमारी अनमोल सांगीतिक धरोहर हैं। सिनेमा में कजरी गीतों का खूब इस्तेमाल हुआ है, लेकिन ज्यादातर कजरी गीतों के शोरगुल में उसकी आत्मा कहीं नहीं नज़र आती। सचिनदेव वर्मन के संगीत में गीतकार शैलेन्द्र का लिखा फिल्म ‘बंदिनी’ का यह गीत आज भी सिनेमा में कजरी गीतों का मीलस्तंभ बना हुआ है !
अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल
सावन में लीजो बुलाए रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियां
दीजो संदेशा भिजाए रे।
अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे
रिमझिम पड़ेंगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल
सावन की ठंडी बहारें
छलके नयन मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब याद आए रे। ..
बैरन जवानी ने छीने खिलौने
और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे नाज़ों की पाली
फिर क्यों हुई मैं पराई
बीते रे जुग कोई चिठिया न पाती
ना कोई नैहर से आए रे।