CENTRAL DESK (SMR) : आज 6 दिसंबर (6 December) है। आज संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर (Dr Bhimrao Ambedakar) की जयंती है। और 1992 में आज के ही दिन अयोध्या (Ayodhya) में बाबरी मस्जिद (Babari Masjid) ढा दी गयी। इसकी सियासत पर नहीं जाना है। उस दिन आम से खास तक किस दहशत में आ गए थे, उसे केवल महसूसा जा सकता है। सोशल मीडिया पर लोग मन की बात को रख रहे हैं। देश के ख्यातिलब्ध पत्रकार रवि प्रकाश (Ravi Prakash) ने सोशल मीडिया पर उस दिन की वस्तुस्थिति को रखा है। यहाँ अक्षरशः प्रकाशित कर रहे हैं। हालांकि यह Repost है। लेकिन यह है सार्वकालिक टाइप का।
हमारी क्लास चल रही थी। दिल्ली के पॉश इलाके साउथ एक्सटेंशन पार्ट-2 में हम इस इत्मिनान में थे कि क्लास नियत वक़्त पर खत्म होगी। और हम यहाँ महफ़ूज हैं। बीएम धवन सर ऑरगेनिक केमिस्ट्री के एक अध्याय में करीब-करीब डूब चुके थे। तभी सेंगल सर क्लास में आए। उन्होंने बाबरी मस्जिद के विध्वंस की सूचना दी और हमारी क्लास तत्काल ख़त्म कर दी गयी।
हमें जल्दी से अपने-अपने घर पहुँचने को कहा गया। हम (मेरे साथ मेरा दोस्त और रुममेट दिवाकर भी था) बाहर निकले। बस स्टॉप पर अजीब-सी दहशत थी। हर आदमी जल्दी में था। दर्जनों क़िस्म की अफवाहें तैर रही थी। किसी ने बताया कि चाँदनी चौक इलाके में कर्फ़्यू लगा दिया गया है। कुछ दंगे जैसी खबरें थीं। कुछ वक़्त पहले तक महफ़ूज हम दोनों बुरी तरह डर गए। लंबे इंतज़ार के बाद 711 नंबर वाली हमारी बस आयी। ठसाठस भरी हुई। चढ़ना मुश्किल था। कोशिशें बेकार हुईं तो हमने अपनी जेबें टटोलीं। हमारे पास सिर्फ़ 20 रुपये थे। साफ़ था कि हमलोग ऑटो नहीं ले सकते थे। बस में एक टिकट के सिर्फ़ 3 रुपये लगते। सो, तय हुआ कि अब जो भी बस आए, लटक जाना है। पुलिस की चहलक़दमी बढ़ गयी थी। इससे सुरक्षा बोध की बजाय डर लगने लगा था। लगा पेशाब कर लें। लेकिन, पास में कोई पब्लिक टायलेट नहीं था।
खैर 711 नंबर वाली हमारी बस फिर से आयी। वैसी ही ठसाठस। हमने इसी में चढ़ना मुनासिब समझा। चढ़ने पर अंदर जाने की जगह बन गयी। सबलोग बाबरी मस्जिद विध्वंस की ही चर्चा कर रहे थे। बस धौलाकुआं पहुँची तो अखबार वाले की आवाज़ सुनायी पड़ी- एक रुपये में आडवाणी गिरफ्तार। अयोध्या में कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढायी…। आदि-आदि। दरअसल, वह सांध्य टाइम्स बेच रहा था। उसकी क़ीमत तब एक रुपये हुआ करती थी। उस इवनिंगर में बाबरी मस्जिद विध्वंस की ख़बर छपी थी। मैंने वहीं पर एक अख़बार ख़रीदा। किसी तरह जनकपुरी पहुँचे। वहाँ से सागरपुर तक पैदल जाना था। सोचा था कि लौटते वक़्त थोड़ी सब्ज़ी लेंगे। क्योंकि घर में आलू भी नहीं था। सागरपुर नाले के पास सब्ज़ियों की दुकानें लगती थीं। लेकिन, सबकी सब बंद। बाज़ार भी बंद हो चुका था। घर पहुँचे तो मकान मालकिन आंटी ने काफी देर तक घंटी बजाने के बाद दरवाजा खोला। दरअसल, वह यह सुनिश्चित कर लेना चाहती थीं कि घंटी बजाने वाले लोग कौन हैं?
हम अपने कमरे में दाख़िल हुए। रेडियो खोला। उस पर वह सारी खबरें चल रही थीं। कहीं-कहीं दंगे शुरू हो चुके थे। उस रात हमने खिचड़ी बनायी। मोतिहारी से आते वक़्त माँ ने आम का अचार दिया था। उसके साथ खिचड़ी खायी। घर में सब्ज़ी नहीं थी और बाहर बाज़ार बंद था। लौटते वक़्त सोचा कि पीसीओ से घर पर फोन करके बता दें कि हम सुरक्षित हैं। लेकिन, सारे पीसीओ बंद मिले। उस दिन मेरा पहली बार दहशत से साक्षात्कार हुआ। हम रात में नींद आने तक रेडियो पर समाचार सुनते रहे थे। इस उम्मीद में कि सुबह के अखबार में विस्तृत खबरें मिलेंगी। वह तारीख 6 दिसंबर थी, साल-1992 !
(नोट : यह लेख वरीय पत्रकार रवि प्रकाश के फेसबुक वाल से लिया गया है। इसमें उनके निजी विचार हैं।)