राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी और चरखा को भारत के गांवों की बदहाली को खुशहाली में बदलने वाला महत्वपूर्ण आर्थिक औजार बताया था। उन्होंने देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से भी खादी को बढ़ावा देने की वकालत की थी। गांधी जी के नेतृत्व में चले स्वतंत्रता आंदोलन में खादी और चरखा ने भी अति महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। संग्राम के ध्वज खादी के कपड़ों से बनाए गए तो चरखे को राष्ट्रीय चिह्न के रूप में राष्ट्रध्वज के सफेद पट्टी पर अंकित किया गया।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी जी ने सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के हथियारों का प्रयोग कर ब्रिटिश सत्ता को झुकाने का प्रथम प्रयास बिहार के चंपारण में किया था। बिहार के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए उन्होंने अनेक चरखा केंद्रों की भी स्थापना की थी। बिहार में खादी और चरखे को लेकर बिहार राज्य खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड द्वारा एक नई पुस्तक ‘बिहार में खादी’ का प्रकाशन किया गया है। बिहार में कला एवं संस्कृति के प्रतिनिधि लेखक अशोक कुमार सिन्हा द्वारा संपादित इस पुस्तक में बिहार में खादी, चरखा : न्याय संगत व्यवस्था का प्रतीक, खादी का जन्म, खादी की निर्माण प्रक्रिया, लोकनायक जयप्रकाश के सोखोदेवरा आश्रम की एक झलक, बिहार का खादी आंदोलन तथा खादी में सब लोगों की दिलचस्पी पैदा हो, शीर्षक से साथ लेख संकलित किए गए हैं।
अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखित पहले आलेख में बिहार में खादी के इतिहास को रेखांकित किया गया है। 1917 के चंपारण आंदोलन के दौरान वहां की महिलाओं की दयनीय स्थिति जिसे देख द्रवित होते हुए गांधी जी ने एक वस्त्र पहनने का निर्णय लिया था, इससे चर्चा का प्रारंभ करते हुए लेखक ने स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान बिहार में अखिल भारतीय चरखा संघ तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा खादी के विकास के लिए किए गए प्रयासों का विस्तृत विवरण दिया है। लेखक बताते हैं कि वर्तमान में देश भर में खादी से जुड़े तकरीबन 6,000 पंजीकृत संस्थान और 32,600 सहकारी संस्थान हैं। यह 10 लाख से अधिक लोगों के जीविकोपार्जन का स्रोत है।
पुस्तक में मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा लिखित आलेख ‘खादी का जन्म’ को भी शामिल किया गया है। इसमें गांधी जी कहते हैं कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान जब वे वापस आए, उस समय तक उन्होंने चरखे का दर्शन नहीं किया था।
गांधीवादी लेखक रजी अहमद ने ‘चरखा- न्याय संगत व्यवस्था का प्रतीक’ शीर्षक आलेख में रेखांकित किया है कि मानवीय मूल्यों पर आधारित अर्थनीति का प्रतीक चरखा ही है। उपभोक्तावादी मानसिकता, उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद पूरी दुनिया के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर टिकी हुई है। पुस्तक में मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा लिखित आलेख ‘खादी का जन्म’ को भी शामिल किया गया है। इसमें गांधी जी कहते हैं कि 1915 में दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान जब वे वापस आए, उस समय तक उन्होंने चरखे का दर्शन नहीं किया था। पहला करघा किस तरह लगाया गया, इसकी विस्तार से जानकारी इस आलेख में है। कौशिक रंजन द्वारा किस हालत में खादी की निर्माण प्रक्रिया को समझाया गया है तो प्रभाकर कुमार ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आश्रम की एक झलक दिखाई है।
पुस्तक पर एक नजर
- समीक्षित पुस्तक : बिहार में खादी
- संपादक : अशोक कुमार सिन्हा
- समीक्षक : दिलीप कुमार
- प्रकाशक : बिहार राज्य खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड, पटना
लक्ष्मीनारायण स्मृति ग्रंथ से साभार प्रकाशित आलेख ‘बिहार का खादी आंदोलन’ में ऐतिहासिक सूचनाओं को रोचक और क्रमबद्ध तरीके से पेश किया गया है। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के आलेख में स्पष्ट कहा गया है कि खादी में सब लोगों की दिलचस्पी होनी चाहिए। राजेंद्र बाबू का मानना था कि नियम पूर्वक थोड़ा भी काम प्रतिदिन किया जाए तो उसका फल साल के अंत में काफी बड़ा देखने में आता है। यदि आधा घंटा भी रोजाना चरखा चलाया जाए तो कम से कम 20 गज कपड़े के लिए सूत तैयार किया जा सकता है। पुस्तक में अपने संदेश में उद्योग मंत्री सैयद शाहनवाज हुसैन कहते हैं कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी और चरखे को नई समाज रचना का प्रतीक माना था। खादी आज भी उतनी ही आवश्यक है, जितनी आजादी मिलने से पहले थी। पुस्तक को आकर्षक कलेवर में खूबसूरत तस्वीरों के साथ बेहतरीन कागज पर छापा गया है। यह कॉफी टेबल बुक नहीं है, लेकिन चित्रात्मक प्रस्तुति इसे किसी भी कॉफी टेबल बुक से ज्यादा बेहतर बनाता है। सातों आलेख में सूचनाओं का भंडार तो है ही, 21वीं शताब्दी में यह पुस्तक हमें नई जीवन दृष्टि भी प्रदान करती है।