PATNA (SMR) : बिहार पॉलिटिक्स के केंद्र बिंदु में हैं नीतीश कुमार। कहिए इसकी धुरी हैं। वे जिधर रहते हैं, सत्ता उधर रहती हैं। परिवर्तन के दौर में वे सीएम के पद पर तो बने रहते हैं, लेकिन बार-बार डिप्टी सीएम बदल जाते हैं। एक बार फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चा में हैं। इस बार वे अपने स्वास्थ्य को लेकर चर्चा में हैं। दरअसल, बिहार पॉलिटिक्स में बदलाव का दौर चल रहा है, लेकिन नीतीश कुमार फिलहाल किसी को ‘कुर्सी’ सौंपना नहीं चाह रहे हैं। इसी मुद्दे पर बिहार-झारखंड की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले वरीय पत्रकार विवेकानंद सिंह कुशवाहा की पढ़िए पड़ताल करती एक रिपोर्ट। इसे उनके सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से अक्षरशः लिया गया है और इसमें उनके निजी विचार हैं।
बिहार की राजनीति में पीढ़ी के बदलाव का दौर चल रहा है। इस बात को जो दल, जो समाज नहीं स्वीकार करेगा, वह राजनीति के खेल में पिछड़ता जायेगा। आदरणीय रामविलास जी और शरद जी ब्रह्मलीन हो चुके हैं। लालू जी भी अपनी मशाल लगभग तेजस्वी यादव को थमा चुके हैं। बस नीतीश जी अभी तक मैदान छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हालांकि, जदयू को संभालने वाली दो-तीन लॉबी ने अपना-अपना प्लान बी तैयार कर रखा है, लेकिन पार्टी कार्यकर्ता और जनता के बीच स्वीकार्यता के मामले में सब नीतीश कुमार पर ही निर्भर हैं। दरअसल, नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता को अपनी ताकत से नहीं, बल्कि चतुराई से संभाला हुआ था/है। यही कारण है कि उनकी देहभाषा गडबड़ाने से भी शासन-प्रशासन के फैसलों पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। मुख्यमंत्री के कुछ विश्वस्त वरीय अधिकारी बिहार की ब्यूरोक्रेसी को डील कर रहे हैं। इन सब चक्कर में एक चीज जो गड़बड़ हो जा रही है, वह है जनभावना की अनदेखी। ऊपर से बिहार में भाजपा की स्थिति गांधारी जैसी हो गयी है, जो आंख होते हुए आंखों पर पट्टी बांधे है।

बीपीएससी मामले को लेकर अगर राजनीति हो भी रही हो, तो भी जनतंत्र में नेता की जिम्मेदारी बनती है कि आंदोलन में जो भी छात्र शामिल हैं, या छात्र न भी शामिल हों, भले वह अलग-अलग दलों के छात्र नेता हों, विपक्ष के दल हों, उन्हें सीधे सरकार के मुखिया एड्रेस करें और अच्छे से एड्रेस करें, ताकि BPSC जैसी संस्था का जो इकबाल बुलंद हुआ NDA की सरकार में, वह बना रहे। इस मामले के बचाव का जिम्मा BPSC और अपने पार्टी प्रवक्ताओं तक ही न छोड़ें।
नीतीश कुमार ने बिहार में बहुत विकास किया है, लेकिन उनको अब बिहार को नये तरीके से आगे ले जाने वालों को नेतृत्व का मौका देना चाहिए। मैं उस दौर के राजद को याद करता हूं कि जब वे ‘लाठी घुमावन, तेल पिलावन’ रैली करते थे और आज की राजद की ओर से विकास से जुड़े मुद्दों पर पोस्टर जारी हो रहे हैं, रोजगार देने की बात हो रही। यह कमाल भी नीतीश कुमार की राजनीति की देन है। उन्होंने राजद जैसे उदंड कार्यकर्ताओं वाले दल को विकास और रोजगार का मंत्र सीखा दिया। भाजपा अगल-बगल के प्रदेशों में खुल कर सांप्रदायिक आधार पर राजनीति करती है, लेकिन बिहार में भाजपा समाजवादी बनी हुई है। यह भी नीतीश कुमार की ही देन है।

हालांकि, नीतीश कुमार को सत्ता में बने रहने की ताकत लालू यादव से मिलती है। नीतीश कुमार के एक बेहद करीबी व्यक्ति बता रहे थे कि उनको नीतीश जी ने खुद कहा कि 2010 की NDA की विशाल जीत से उन्हें यह भ्रम हो गया था कि बिहार के सवर्णों ने भी उन्हें अपना नेता मान लिया है। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका यह भ्रम चकनाचूर हो गया। उन्होंने भले सीएम पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन तय किया कि राजद को इतना जिंदा कर देंगे कि फिर से उनके होने के महत्व को बिहार की सवर्ण बिरादरी समझ सके। साथ ही बिहार में भाजपा कभी उनको आंख दिखाने की स्थिति में न रहे।

2015 में वही हुआ। न सिर्फ उन्होंने राजद को अपने चेहरे के पीछे रख कर बिहार में स्वीकार्यता दिलायी, बल्कि तेजस्वी यादव को पॉलिटिकली बहुत मोल्ड भी कर दिया। उसी का नतीजा हुआ कि चक्रव्यूह वाली चुनावी बिसात पर 2020 में राजद ने बहुत बेहतर प्रदर्शन किया। तब राजद को चिराग पासवान की बगावत और उपेंद्र कुशवाहा के अकेले लड़ने का भी जरूर लाभ मिला। फिर भी तेजस्वी यादव के लिए 2020 का चुनाव बूस्टर डोज साबित हुआ। फिर भाजपा को भी यह बात पता है कि बिहार, यूपी नहीं है। यहां सामाजिक न्याय के साथ ही विकास की गाड़ी दौड़ेगी। क्योंकि, बिहारी यह जानते हैं कि महल-अटारी के सुख से बड़ा सुख स्वाभिमान का है। यह एहसास भी भाजपा को नीतीश चाचा ने ही अपने दो स्क्वाॅयर ड्राइव से दिलाया है।


भाजपा विधायक दल के नेता व उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी की अग्रेसिवनेस भले बहुत लोगों को खलती है, लेकिन वो न सिर्फ कर्मठ व ऊर्जावान नेता हैं, बल्कि पिता से समाजवाद की सीख पाकर नेता बने हैं। राबड़ी देवी के कैबिनेट का हिस्सा रहने से लेकर नीतीश कुमार के कैबिनेट का हिस्सा होने तक सम्राट चौधरी कई बार बिहार सरकार के मंत्री रहे। अपने मंत्रालय में बेहतर काम भी किया। पहली बार मंत्री बनाये जाने के दौरान उम्र वाले मामले को छोड़ दें, तो वह भी बेदाग रहे हैं। साथ ही यह मैं मानता हूं कि त्रिवेणी की जिस धारा ने बिहार को समाजवाद की धारा की तरफ मोड़ने की अगुआई की, उसमें कर्पूरी जी के दिखाये मार्ग पर यदुवंशी और लववंशी भाइयों के बाद कुशवंशी भाइयों का हिस्सा ड्यू है। यह भी सच है कि सीएम चाचा की मर्जी के बिना ऐसा हो पाना अभी संभव नहीं है। उन्हें अपने भाजपाई भतीजे को भी आशीर्वाद देना चाहिए। साथ ही जदयू की कमान किसी काबिल युवा नेता को सौंप कर बिहार की तरक्की को रफ्तार देने में मार्गदर्शक वाला योगदान देना चाहिए। वरना कॉरपोरेट पॉलिटिक्स की बिहार में इंट्री हो ही चुकी है। आने वाले दिनों में बिहार पॉलिटिक्स का स्वरूप और बदलेगा, खांटी राजनीति करने वाले नेता अपने एसोसिएट/सहयोगियों पर निर्भर होते जायेंगे। बिहार में राजनीति के मुद्दे भी बदलेंगे। शायद उस समय तक चाचा मार्गदर्शक वाला हस्तक्षेप कर पाने की स्थिति में न रहें।