PATNA (SMR) : एक थे बटुक भाई। बटुक भाई का वास्तविक नाम है छत्रानन्द सिंह झा। उन्हें बटुक भाई का नाम दिया ‘चौपाल’ ने। यह आकाशवाणी पटना से प्रसारित होने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम है। बटुक भाई आकाशवाणी की सेवा में 1968 में आये। वह रेडियो का जमाना था। और, ‘चौपाल’ की लोकप्रियता बुलंदी पर थी। शाम के साढ़े छह बजे रेडियो पर जैसे ही ‘चौपाल’ का ट्यून बजना शुरू होता, गांव-शहर-कस्बों में लोग अपना काम-काज छोड़ रेडियो को घेर कर बैठ जाते थे। ट्यून बजना बंद होते ही बटुक भाई की आवाज गूंजती- ‘नमस्कार यौ मुखिया जी !’ फिर मुखियाजी का जवाब आता- ‘खुश रहो बटुक भाई !’… और यह बटुक भाई की आवाज 16 सितंबर की दोपहर में सदा के लिए बंद हो गयी। वे चिरनिद्रा में सो गए। बटुक भाई को श्रद्धांजलि देते हुए मुखियाजी गौरीकांत चौधरी के पुत्र एजुकेशन एक्सपर्ट डॉ लक्ष्मीकान्त सजल ने अपनी लेखनी से श्रद्धासुमन अर्पित किए। डॉ लक्ष्मीकान्त सजल का यह संस्मरण उनके सोशल मीडिया से लिया गया है और इसमें उनके निजी विचार हैं।
टिपिकल मैथिली में अपने चुटीले संवाद और उसके कहने के अंदाज से बटुक भाई देखते ही देखते ‘चौपाल’ खासकर उसके करोडो़ं मैथिली भाषी श्रोताओं के दिलों पर राज करने लगे। वे बटुक भाई के अपने किरदार में इस तरह रमते चले गये कि वास्तविक जीवन में भी लोग उन्हें उसी नाम से संबोधित करने लगे। रेडियो पर प्रसारित होनेवाले मैथिली नाटकों पर अपने अभिनय से वे अमिट छाप छोडते रहे। उनके द्वारा अभिनीत दर्जनों रेडियो नाटक उस वक्त के श्रोता आज भी नहीं भूल पा रहे हैं।
बन गए ‘घरौंदा’ के भईया
रेडियो पर ‘चौपाल’ के बटुक के साथ ही उन्होंने एक और लोकप्रिय किरदार को जिया। वह किरदार था ‘घरौंदा’ के भईया का। ‘घरौंदा’ बच्चों का कार्यक्रम है। हर शुक्रवार को प्रसारित होनेवाला पच्चीस मिनट का यह कार्यक्रम ‘चौपाल’ का ही हिस्सा है। पहले इस कार्यक्रम का संचालन ‘काका’ की भूमिका में बुधन भाई (गोपाल कृष्ण शर्मा) करते थे। उनकी अनुपस्थिति में बटुक भाई बच्चों के ‘भईया’ बन ‘घरौंदा’ में उनके बीच होते। लेकिन, बुधन भाई के असामयिक निधन के बाद ‘घरौंदा’ में ‘काका’ की जगह पूरी तरह से ‘भईया’ ने ले ली। वे बच्चों के बीच ‘भईया’ के रूप में काफी लोकप्रिय रहे। ‘घरौंदा’ के बाहर भी जब बच्चे उन्हें देखते, तो ‘भईया’ ही कहते।
‘भारती’ के संचालक-उदघोषक भी रहे
रेडियो पर बटुक भाई की एक पहचान और थी। वह पहचान थी रेडियो पर प्रसारित होने वाले मैथिली कार्यक्रम ‘भारती’ के संचालक-उदघोषक की। संचालक के रूप में अपनी उदघोषणा से उन्होंने ‘भारती’ की अलग पहचान बनायी। बटुक भाई मूल रूप से बिहार के दरभंगा जिले के चनौर गांव के थे। यह गांव मनीगाछी प्रखंड में है। बटुक भाई का जन्म पांच अप्रैल, 1946 को श्रोत्रिय ब्राह्मण परिवार हुआ। वे मगध विश्वविद्यालय से मैथिली में स्नातकोत्तर थे। आकाशवाणी की सेवा में आने के पहले उन्होंने रेलवे की नौकरी की। आकाशवाणी की सेवा में रहते हुए उन्होंने अपने अभिनय से मैथिली रंगमंच को एक नया अध्याय दिया। वे मैथिली नाट्य संस्था ‘भंगिमा’ के संस्थापकों में थे। उनके द्वारा लिखित नाटक ‘सुनु जानकी’ के मंचन से मैथिली रंगमंच को नयी दिशा मिली है।
व्यंग्यकार की भी पहचान बनी
बटुक भाई की मैथिली में तकरीबन दर्जन भर किताबें हैं। लेकिन, मैथिली साहित्य में उनकी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप है। ‘कांट-कूस’ (कथा संग्रह) से उन्होंने व्यंग्य लेखन की शुरुआत की। कथा संग्रह ‘डोकहरक आंखि’ ने उन्हें व्यंग्यकार के रूप में स्थापित कर दिया। उनकी किताबों में काव्य संग्रह ‘एक गुलाबक लेल’, नृत्य नाटिका ‘सीताहरण’, आलोचना की पुस्तक ‘मैथिली रेडियो नाटक’ तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित ‘कबीर’ और ‘गौरीकान्त चौधरी कान्त मुखियाजी’ शामिल हैं। उन्होंने नाटकों के मैथिली में अनुवाद भी किये। उन्होंने अप्रैल, 2006 तक रेडियो के श्रोताओं के दिलों पर राज किया। तकरीबन अड़तीस वर्षों की सेवा के बाद जब आकाशवाणी से सेवानिवृत्त हुए, तो अपना जीवन लेखन और रंगकर्म को सौंप दिया।
इन गमों को नहीं झेल पाए
इस बीच अप्रैल, 2016 में पत्नी गीता झा उनका साथ छोड़ इस दुनिया से विदा हो गईं। इस सदमे को अपनी मुस्कुराहट से वे झेल भी नहीं पाए थे कि 2017 में छोटा बेटा सुनील सिंह झा ने सदा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं। उनके लिए बड़े बेटे अनिल सिंह झा श्रवण कुमार की भूमिका में थे। बावजूद, वे साल भर से बीमार चल रहे थे। और, 16 सितंबर, 2022 को आवाज की दुनियां का यह नायक अलविदा कह गया।
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