MADHEPURA / PUNE (RAHUL KUMAR GAURAV) : विविधताओं से भरे अपना देश भारत का हर राज्य एक अलग संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। अपनी अलग पहचान रखता है। इस वजह से एक राज्य से दूसरे राज्य में पर्व-त्यौहार भी अलग-अलग होते हैं। यूं तो भादो शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से अनंत चतुर्दशी तक मनाए जाने वाले महाराष्ट्र का महापर्व गणेशोत्सव हिंदू धर्म के लिए एक अति महत्वपूर्ण त्यौहार है। महाराष्ट्र के अधिकांश शहर गणेश चतुर्थी के रस में सराबोर रहता है। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महाराष्ट्र से सात साल पहले बिहार में इस महापर्व को मनाने की शुरुआत गई थी।
पुणे स्थित एमआईटी डब्लू पीयू विश्वविद्यालय के इतिहास के छात्र संतोष मोरे बताते हैं कि सन 1630-1680 में शिवाजी ने इस महापर्व को सबसे पहले पुणे में मनाना शुरू किया था। 18वीं सदी में पेशवाओं ने भादो माह में सार्वजनिक रूप से गणेश उत्सव मनाना शुरू किया था। इसमें अंग्रेज भी चंदा देते थे। बाद में अंग्रेजों ने इसके लिए रुपया देना बंद कर दिया। इसकी वजह से गणेशोत्सव रोकना पड़ा। फिर बाल गंगाधर तिलक ने 20 अक्तूबर, 1893 को पुणे के अपने निवास स्थल केसरी बाड़ा में पहला सार्वजनिक गणेश उत्सव आयोजित किया, जो कार्यक्रम 10 दिन तक चला था। यहीं से महाराष्ट्र में गणेश उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई थी।
मधेपुरा में हुई थी शुरू : आज से 10-12 साल पहले बिहार के अधिकांश जगहों पर गणेश चतुर्थी सिर्फ एक धार्मिक दिन के रूप में मनाया जाती थी, त्योहार के रूप में नहीं। फिर सोशल मीडिया के प्रभाव और बिहार के लोगों का अन्य राज्यों में जाने के बाद अब कई जगहों पर भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित की जाती है। हालांकि, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 18वीं शताब्दी यानी पेशवाओं के द्वारा गणेश पूजा बंद होने के बाद देश में सबसे पहले बिहार के मिथिला क्षेत्र में गणेश उत्सव का शुभारंभ हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व वीसी डॉ गंगानाथ झा की आत्मकथा पर आधारित किताब में लिखी एक कथा के मुताबिक, बिहार के मधेपुरा जिले में 1886 के आसपास ही गणेश पूजा मनाने की परंपरा शुरू हो गयी थी। उस समय भी इसे काफी भव्य तरीके से आयोजित की जाती थी। जबकि, महाराष्ट्र में इसके करीब 7 साल बाद 1893 में गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से मनाने की परंपरा शुरू हुई। मधेपुरा विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष विनय चौधरी बताते हैं कि जिले के शंकरपुर का इलाका धार्मिक दृष्टिकोण से काफी समृद्ध रहा है। हालांकि, इस गणेश पूजा के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है।
दरभंगा महाराज ने की थी शुरुआत : डॉ गंगानाथ झा की आत्मकथा में साफ तौर से इस बात का उल्लेख है कि वे तब दरभंगा राजपरिवार में लाइब्रेरियन के पद पर कार्यरत थे। उस वक्त वे दरभंगा महाराजा के भाई नंदन जी के साथ मिलकर वर्तमान मधेपुरा जिले के शंकरपुर में सार्वजनिक रूप से गणेश पूजा का आयोजन करते थे। एक वक्त दरभंगा महाराजा ने खुद दरभंगा में गणेश पूजा की शुरुआत की थी और गंगानाथ झा को इसे संपन्न कराने का पूरा दायित्व सौंपा था। हालांकि, डॉ गंगानाथ झा ने उन्हें पत्र में लिखा कि उन्होंने नंदन जी के साथ मधेपुरा स्थित शंकरपुर में ये पूजा करने की शपथ ली है। ऐसे में वे उनके आग्रह को स्वीकार नहीं कर पाएंगे। इसके बाद 19वीं शताब्दी के आखिर में गंगानाथ झा को दरभंगा राजपरिवार की नौकरी से निकाल दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में लिखा हुआ है कि महराजा रूद्र सिंह के पोते और महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के भाई और आप्त सचिव बाबू जनेश्वर सिंह ने 1886 के आसपास ही वर्तमान मधेपुरा जिले के शंकरपुर में सार्वजनिक रूप से गणेश पूजा की शुरुआत की थी। दरभंगा महाराज के कार्यकाल के दौरान कोसी क्षेत्र में शंकरपुर स्टेट का अपना रुतबा था। 19वीं शताब्दी के आखिरी दशक में केवल शंकरपुर ही नहीं, दरभंगा, राजनगर जैसे अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर भी यह पूजा धूमधाम से मनायी जाती थी। कोसी इलाके के रहने वाले अरुण कुमार झा मैथिली लेखक के साथ कृषि विभाग के अधिकारी भी थे, वे बताते हैं कि पहले कोसी और सीमांचल इलाके को मिथिला से अलग बताया जाता था। इस वजह से यहां की संस्कृति का उतना विकास राजा के द्वारा नहीं होता था।
बिहार में कई जगहों पर होती है पूजा : रोहतास के रहने वाले हैप्पी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं। वो बताते हैं कि बिहार में गणेश पूजा को एक उत्साही त्योहार के रूप में नहीं मनाया जाता है। हालांकि कई जगहों पर इसका प्रचलन बहुत पुराना है। जैसे बिहारशरीफ के सोहसराय, पुलपर समेत अन्य जगहों पर ‘बुढ़वा गणेश’ की विशेष आकृति की पूजा की जाती है। लगभग 100 साल पहले व्यापारियों के द्वारा ही गोला गणेश की स्थापना की गयी थी। तब से लेकर आज तक मुंबई की तर्ज पर 10 दिनों तक घर-घर बप्पा की पूजा की जाती है।
कौन थे डॉ गंगानाथ झा : डॉ गंगानाथ झा का जन्म 25 दिसंबर 1871 को दरभंगा राजघराने से जुड़े तीर्थनाथ झा और रमा काशी देवी के घर हुआ था। वे 1988 में संस्कृत सेइलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए और 1892 में एमए किए। एमए की डिग्री लेने के बाद गंगानाथ झा ने वाराणसी में दो सालों तक शास्त्रों का अध्ययन किया। उन्होंने कई संस्कृत पुस्तकों का अनुवाद किया। वे संस्कृत के अलावा भारतीय व बौद्ध दर्शन के जानकार भी थे। डॉ गंगानाथ झा को महाराजा दरभंगा लक्ष्मीश्वर सिंह ने अपने पुस्तकालय में अध्यक्ष बनाया था। हालांकि बाद में गंगानाथ झा ने जब शंकरपुर में गणेश पूजा नहीं की, तब वे मिथिला नरेश की नाराजगी के शिकार बने और उन्हें अध्यक्ष पद गंवानी पड़ी। इसके बाद गंगानाथ झा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बने। 1923 में उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कुलपति का पद संभाला। उस समय भारत सरकार ने उनकी विद्वता से प्रभावित होकर उन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया था। वहां उनके नाम पर हॉस्टल भी है।