‘अरे हमरी ट्रेनवा तो ऊ रही, हम तो गलत गाड़ी में बैठ गए’… ऐसे थे राजू श्रीवास्तव

DELHI (SMR) : ‘राजू श्रीवास्तव का नाम ‘शो बिजनेस’ के इतिहास पुरुषों में दर्ज होना चाहिए या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है, पर वे कई मायनों में नये प्रतिमान गढ़ने वाले जरूर साबित हुए हैं। वे भारत के छोटे शहरों और कस्बों में पलने, पनपने वाली उन महत्वाकांक्षाओं के प्रतिनिधि थे, जिनसे महानगर गुलजार तो होते हैं, पर उन्हें तवज्जो देने से कतराते हैं। राजू ने न केवल ध्यान आकर्षित किया, बल्कि अपने लिए खास जगह भी बनाने में कामयाब रहे.. ‘ यह आलेख देश के प्रतिष्ठित वरीय पत्रकार और साहित्यकार शशि शेखर के सोशल मीडिया पोस्ट से अक्षरशः लिया गया है। इसमें लेखक के निजी विचार हैं। प्रस्तुत है इस आलेख के आगे का भाग…  

क ‘रिसर्च’ के अनुसार हर दिन लगभग 17 हजार नवयुवक-युवतियां ग्लैमर की दुनिया में काम करने के लिए मायानगरी  पहुँचते हैं, राजू भी उन्हीं में से एक थे। इनमें से 99.9 प्रतिशत गुमनामी में खो जाते हैं, पर राजू ने नाम और दाम दोनों कमाया। वे हंसोड़ की जिस इमेज को खाद-पानी दे रहे थे, वह नखलिस्तान में फूल उगाने जैसा था। वे ऐसा इसलिए कर सके, क्योंकि उन्हें जल्दी ही प्रस्तोता और रचयिता में फर्क समझ में आ गया था।

कानपुर से मुंबई पहुंचे राजू फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करते थे, पर बाद में उन्होंने ‘स्टैंडअप कमेडियन’ का एक नया अवतार रचा। पहले जॉनी लीवर और उन जैसे कुछ और स्थापित कमेडियन इस भूमिका को अंजाम दिया करते थे, पर उनका दायरा सीमित था। वे अक्सर किसी संगीतकार, गायक, गायिका, नायक अथवा नायिका के शो में बीच की रिक्तियां भरने के लिए बुलाये जाते थे। इन लोगों का काम दर्शकों को एक निश्चित अंतराल के लिए बांधे रखना होता है। वे अक्सर मिमिक्री का सहारा लेते या अपनी किसी फिल्म के दृश्य को दोहराते। कभी-कभी निजी जिंदगी या परिवेश की कुछ घटनाएं चुटकुलों के अंदाज में भी सुनाया करते थे, पर वे सीमित होतीं। राजू ने इसे नया आयाम दिया। कैसे?

जो कानपुर को जानते हैं, वे इस शहर के अल्हड़पन से वाकिफ होंगे। ये अकेला शहर है, जहां ‘झाड़े रहो कलेक्टर गंज’ जैसी लोकोक्ति समय की सीमाओं को भेदती हुई अभी तक कायम है। आपने अच्छा प्रदर्शन किया हो या फिर यूं ही गप मार रहे हों, कोई जाना-अनजाना शख्स अचानक बोल पड़ता है, ‘झाड़े रहो कलक्टर गंज’। राजू उसी मस्ती और बेलौसपन को मंच तक ले आए। वे चर्चित लोगों की मिमिक़ी से ज्यादा ‘आम आदमी’ के किरदार को महत्व देते थे।

यह वह ‘आदमी’ है, जिसे भारत में तेजी से पनपता प्रभु वर्ग कोई तवज्जो नहीं देता। एक बार कनाडियन मूल के मशहूर लेखक तारेक फतह ने मुझसे कहा था कि आप हिंदुस्तानी एक नई मनोवृत्ति के शिकार हो रहे हैं। आप होटल में जाते हैं तो ‘रिसेप्शनिस्ट’ की आंखों में देखने की बजाय उसके पीछे लगी घड़ी को देखकर बोलते हैं। आपको किसी वेटर या अपने किसी निचले दर्जे के कर्मचारी का चेहरा देखने में झिझक महसूस होती है। यह हिंदुस्तानियत के खिलाफ है। राजू उसी अनजाने इंसान को ठिठोली के अंदाज में प्रभुवर्ग के बीच ले आए।

मुझे उनका एक प्रहसन याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने एक पुरबिया परिवार की त्रासद कथा को मंचित किया था। मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर वह छोटा-सा कुटुंब ‘मुल्क’ जाने के लिए ट्रेन में सवार होता है। तीसरे दर्जे में बैठते ही वे लोग गप-शप में मशगूल हो जाते हैं। कुछ अपनी पोटलियों में रखा खाना निकाल लेते हैं, तो कुछ किस्सागोई के दांव आजमाने लगते हैं। इस रंग में भंग तब पड़ जाता है, जब बगल की पटरी पर खड़ी एक ट्रेन सरकने लगती है और एक बुजुर्ग बोलता है कि हमारी गाड़ी चल रही है कि बगल वाली? बगल में खिसकती ट्रेन का नाम और गंतव्य पढ़ उनमें से एक विलाप के अंदाज में कह उठता है कि अरे हमरी ट्रेनवा तो ऊ रही, हम तो गलत गाड़ी में बैठ गए। महानगरों के दुष्वारियों से हकबकाए आम लोग अक्सर ऐसी भूल कर बैठते हैं। इस त्रासदी को राजू ने किस तरह व्यंग्य-विनोद में परिवर्तित किया, वह काबिले तारीफ है। इन किस्सों को अपने अंदाज में बयां करने के लिए उन्होंने एक चरित्र गढ़ डाला- ‘गजोधर’। वे जहां जाते, अक्सर ‘गजोधर भइया’ के नाम से पुकारे जाते।

वे उन चंद लोगों में से एक थे, जिन्होंने ‘स्टैंडअप कमेडी’ को किसी स्टार के शो में खाली समय भरने के उपादान से उठाकर भरे-पूरे उद्योग में तब्दील कर दिया। आज नई नस्ल के तमाम प्रतिभाशाली प्रतिनिधि इसी राह पर चलकर दौलत और शोहरत कमा रहे हैं। ये अवसाद से कुम्हलाती एक समूची पीढ़ी को हंसाते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि ‘लाफ्टर इज बेस्ट मेडिसन’। ये लोग हंसोड़ हस्तियों की परंपरा के अनुपालन में अक्सर व्यवस्था को चुनौती देते हैं। कुणाल कामरा, कमाल फारुकी या स्वाति सचदेवा ऐसे कुछ नाम हैं, जो सत्ता अथवा समाज से टकराने में संकोच नहीं करते। आप पूछेंगे राजू श्रीवास्तव ने ऐसा कब किया? लालू यादव के सामने उनकी मिमिक्री का साहस भला कितने लोगों में था?

राजू ने राजनीति में हाथ आजमाने की भी कोशिश की। समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ा पर हार गए। बाद में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए, पर कुछ हासिल न कर सके। यूक्रेन एक हंसोड़ को अपना राष्ट्रपति चुन लेता है। पाकिस्तान में एक क्रिकेटर प्रधानमंत्री बन सकता है। तीसरे दरजे की स्टंट फिल्मों के कलाकार रोनॉल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बन सकते हैं, पर भारत सियासत इस मामले में अभी भी ‘लकीर का फकीर’ है। राजू श्रीवास्तव ‘शो बिजनेस’ में नया चलन चालू करने वालों में से जरूर थे, पर राजनीति ने उन्हें उनकी उम्मीद की जगह नहीं दी। हरेक को हर क्षेत्र में मुकम्मल जहां मिल भी कैसे सकता है?

राजू आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उन्होंने पीड़ाओं और विसंगतियों को ठहाकों की वजह बना दिया। तनाव-भरी इस दुनिया में यह ऐसा विरल काम है, जिसे आप जैसे कुछ लोग ही कर पाते हैं, राजू! आप वेदनाओं के दौर में ठहाकों की उस ठंड की भांति थे, जो कुछ देर के लिए ही सही पर दूसरों के दुख को हर लेने की अद्भुत क्षमता रखती है। शायद जाते समय आपको रंज रह गया हो कि आप कुछ अधिक के दावेदार थे । हम हिंदुस्तानी हँसोड़ों को उनका दाय देना कब सीखेंगे ?

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