PATNA (APP) : कार्तिक माह हिंदू धर्म का सबसे महत्वपूर्ण महीना है। इस महीने में पूरे माह भर सूर्योदय से पहले स्नान करने की अलग परंपरा है। इसके अलावा कई त्योहार एक साथ मनाए जाते हैं। इसी माह छठ पूजा भी है। इसके अलावा दिवाली तो होती ही होती है। भले ही कार्तिक माह की अमावस तिथि को एक दिन दिवाली मनाने की परंपरा है। लेकिन इसके साथ पांच पर्व आगे-पीछे जुड़े होते हैं। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से शुक्ल पक्ष की द्वितीया तक। शास्त्रों में इन पांच दिनों को यम पंचक कहा गया है। इन पांच दिनों में यमराज, वैद्यराज धन्वंतरि, लक्ष्मी-गणेश, हनुमान, काली और भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। ऐसे में यमपंचक के बारे में जानिए कि इनमें कौन-कौन से 5 पर्व शामिल हैं।
धनतेरस (10 नवंबर) : दिवाली के दो दिन पहले कार्तिक माह की त्रयोदशी से यमपंचक शुरू होता है। पहले दिन धनतेरस मनाया जाता है। इसी दिन भगवान धन्वंतरि की पूजा होती है। इस दिन का मुख्य संबंध यमराज की भी आराधना से है। भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है। बता दें कि भगवान धन्वंतरि का जन्म धनतेरस के दिन हुआ था। भगवान विष्णु के 24 अवतारों में भगवान धन्वंतरि का अवतार 12वां है। मान्यता है कि देवों और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन का प्रयास शुरू किया, जिसमें से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई। इसके लिए मंदार पर्वत को मथानी और वासुकी नाग को मथानी की रस्सी के तौर पर इस्तेमाल किया गया था। यह मंदार पर्वत बिहार में ही है। इसी समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि का अवतरण हुआ था। धनतेरस पर यम दीप जलाने के साथ ही नए गहने और बर्तन आदि खरीदने की भी परंपरा है। लोक मान्यता के अनुसार, इस दिन सोने या चांदी के सिक्के अथवा बर्तन खरीदना काफी शुभ माना जाता है।
नरक चतुर्दशी (11 नवंबर) : कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को नरक चतुर्दशी मनायी जाती है। इसे नरक चौदस भी कहा जाता है। कहीं-कहीं नरक चतुर्दशी पर यम दीप निकालने की परंपरा है। खासकर बिहार के कई भागों में इस तरह के यम दीप घर के मुख्य दरवाजे पर निकाले जाते हैं। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार, इस दिन शाम को चार बातियों वाला दीपक घर के बाहर कूड़े के ढेर पर जलाया जाता है। वैसे एक बाती वाला दीपक भी जलाया जाता है, लेकिन इसमें ध्यान रखा जाता है कि यह दीपक पुराना हो। इसके पीछे मान्यता यह है कि स्थान चाहे कोई भी हो, शुभता का वास हर जगह होता है। समय विशेष पर उसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है। इसी दिन बिहार के मिथिलांचल समेत पूर्व बिहार में ‘हुक्का-पाती’ खेलने की परंपरा है। इस दौरान घर के पुरुष ‘लक्ष्मी घर, दरीद्दर बाहर’ बोलते हैं। इसके माध्यम से वे मां लक्ष्मी को घर के अंदर रहने और दरिद्र को बाहर जाने का आह्वान करते हैं।
दीपावली (12 नवंबर) : दिवाली के बारे में कहने की जरूरत ही नहीं। इसके बारे में तो हर कोई जानता है कि दीपों का त्योहार दिवाली कार्तिक माह की अमावस को मनाया जाता है। इस यम पंचक में दिवाली तीसरे दिन होती है। दिवाली सनातनी परंपरा में रात में मनाए जाने वाले प्रमुख पर्वों में से एक है। पौराणिक कथा के अनुसार, तीसरी महानिशा में शुमार कालरात्रि का यह महापर्व है। आम लोग इसे दिवाली या दीपावली के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि दिवाली के दिन सूर्यास्त से अगले सूर्योदय के बीच का काल विशेष रूप से प्रभावी होता है। मोहरात्रि, शिवरात्रि, होलिका दहन, शरद पूर्णिमा की भांति ही दीपावली में भी संपूर्ण रात्रि जागरण का विधान है। कालरात्रि वह निशा है, जिसमें तंत्र साधकों के लिए सर्वाधिक अवसर होते हैं। इसी दिन खासकर बिहार और पश्चिम बंगाल में काली पूजा का भी प्रावधान है। बिहार के मिथिलांचल में दिवाली के दिन काली पूजा भी मनायी जाती है। दिवाली बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व भी है। दरअसल, भगवान श्री राम ने लंकापति रावण पर विजय प्राप्त की थी और इस दिन वह 14 साल का वनवास पूरा कर अयोध्या वापस लौटे थे। भगवान राम के वापस आने की खुशी में अयोध्या में प्रकाश पर्व मनाया गया था। कहा जाता है कि जब भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता अयोध्या वापस आए थे तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था। लोगों ने उनका स्वागत दीप जलाकर किया था, इसलिए दिवाली को मिलन का त्योहार भी कहा जाता है। इस दिन सभी लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिठाई बांटते हैं। दिवाली पर पटाखा फोड़ने की भी परंपरा है।
गोवर्धन पूजा (13 नवंबर) : कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट मनाया जाता है। यानी दिवाली के ठीक अगले दिन यह पर्व पड़ता है। इस दिन सभी छोटे-बड़े देवालयों में छप्पन भोग अर्पित किए जाते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर और अन्नपूर्णा मंदिर में अन्नकूट की झांकी विश्वविख्यात है। पं. वेदमूर्ति शास्त्री के अनुसार ब्रह्मवैवर्त पुराण में विस्तारपूर्वक अन्नकूट का महत्व बताया गया है। इसी दिन गोवर्धन पूजा का विधान भी है, लेकिन उत्तर भारत में काशी की परंपरा के अनुसार यह पूजन यम द्वितीया (भाई दूज) के दिन किया जाता है।
भैया दूज (14 नवंबर) : यमपंचक का 5वां त्यौहार है भाई दूज। यह भाई-बहन के प्रेम के प्रतीक का पर्व है। यह पर्व रक्षाबंधन के भी पहले से सनातनी समाज का हिस्सा रहा है। स्कंद पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण दोनों में ही इसकी महत्ता का वर्णन मिलता है। इस दिन प्रत्येक भाई का दायित्व है कि वह विवाहित बहन के घर जाए। उसके हाथ का पका भोजन ग्रहण कर सामर्थ के अनुसार द्रव्य, वस्त्र, मिष्ठान्न आदि भेंट करे। यदि बहन अविवाहित और छोटी है तो उसकी इच्छानुसार भेंट दे। लोक मान्यताओं में गोधन पूजन को विशेष महत्व दिया गया है। इसी दिन कायस्थ समाज की ओर से भगवान चित्रगुप्त की पूजा की जाती है।