Exclusive : खेल दिवस पर इतना सन्नाटा क्यों है भाई, क्या बदल गए हैं नेशनल स्पोर्ट्स डे के मायने !

PATNA (MR) : 29 अगस्त, जिसे देशभर में राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है, भारतीय खेल संस्कृति का एक अहम प्रतीक रहा है। यह दिन हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जयंती के अवसर पर खेलों को समर्पित किया गया था, और दशकों से यह न केवल एक प्रतीकात्मक आयोजन रहा, बल्कि खिलाड़ियों के सम्मान का एक बड़ा मंच भी। हर वर्ष इसी दिन राष्ट्रपति भवन में आयोजित होने वाले राष्ट्रीय खेल पुरस्कार समारोह– जिसमें अर्जुन पुरस्कार, ध्यानचंद पुरस्कार, द्रोणाचार्य पुरस्कार और राजीव गांधी खेल रत्न (अब मेजर ध्यानचंद खेल रत्न) जैसे प्रतिष्ठित सम्मानों का वितरण होता था– खिलाड़ियों की वर्षों की मेहनत का सम्मान था।

यह दिन खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा, पहचान और गौरव का पर्याय बन चुका था। राज्यों में भी स्थानीय खिलाड़ियों को इसी दिन सम्मानित किया जाता था, जिससे जमीनी स्तर पर भी खेलों को बढ़ावा मिलता। लेकिन 2025 का राष्ट्रीय खेल दिवस इतनी चुप्पी से भरा क्यों है ? इस वर्ष न तो राष्ट्रपति भवन में पारंपरिक पुरस्कार वितरण समारोह हुआ, न ही राज्यों में खास आयोजन। सरकार की ओर से कोई स्पष्ट वक्तव्य या योजना नहीं आयी कि यह बदलाव क्यों हुआ। न तो तारीख बदली गयी, न ही कार्यक्रम को स्थगित कहकर किसी अन्य दिन का वादा किया गया। सवाल यह नहीं है कि पुरस्कार कब दिए जाएंगे, सवाल यह है कि इस दिन की आत्मा को आखिर क्यों दरकिनार किया जा रहा है?

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संभावित कारण या बहाने : कुछ सूत्रों का कहना है कि सरकार अब खेल पुरस्कारों को ओलंपिक वर्ष से जोड़ने की सोच रही है, यानी हर चार साल में बड़े आयोजनों के आधार पर पुरस्कारों का स्वरूप बदला जाएगा। जबकि, कुछ अन्य का मानना है कि राजनीतिक प्राथमिकताओं के चलते ऐसे आयोजनों को कम प्रचारित या टाला जा रहा है ताकि फोकस किसी अन्य दिशा में मोड़ा जा सके।
यदि यह सच है, तो यह एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है– जब राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक दिवसों को भी सुविधानुसार मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। पुरस्कारों को किसी और तारीख पर स्थानांतरित करने की प्रक्रिया न केवल परंपरा का अपमान है, बल्कि खिलाड़ियों की वर्षों की तपस्या के साथ अन्याय भी।

खेल संस्कृति के लिए शुभ संकेत नहीं : भारत में खेल और खिलाड़ियों को वैसे भी संसाधनों और मान्यता के लिए जूझना पड़ता है। ऐसे में एकमात्र दिन जो उन्हें राष्ट्र के मंच पर पहचान देता था, अगर वह भी अस्थायी या अनिश्चित बना दिया जाए, तो यह देश की खेल संस्कृति के लिए शुभ संकेत नहीं। क्या हम यह संकेत देना चाह रहे हैं कि खिलाड़ी अब पुरस्कारों की आस न रखें? या फिर यह कि सरकारी प्राथमिकता में खेल अब किसी और एजेंडे के नीचे दब चुके हैं ?

परंपरा से प्रयोग तक, लेकिन संतुलन जरूरी : बदलाव बुरा नहीं होता, पर बदलाव का तरीका और समय बहुत मायने रखता है। यदि सरकार या खेल मंत्रालय किसी नई योजना की ओर बढ़ रहा है तो उसकी पारदर्शिता और पूर्व सूचना बेहद जरूरी थी। राष्ट्रीय खेल दिवस को यूं खामोशी से निकल जाने देना, केवल एक आयोजन नहीं खोना है, यह देश की खेल भावना को अनदेखा करने जैसा है। राष्ट्रीय खेल दिवस को केवल कार्यक्रम की नजर से न देखें– यह खिलाड़ियों के संघर्ष, देश की पहचान और भविष्य की संभावनाओं का उत्सव है। इसे नजरअंदाज करना, देश के भविष्य को नजरअंदाज करने जैसा है। (नोट : यह आलेख वरीय खेल पत्रकार ईशाउद्दीन के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से अक्षरशः लिया गया है। ये देश के प्रतिष्ठित अखबारों में कार्य कर चुके हैं। इस आलेख में लेखक के निजी विचार हैं।)