
PATNA (MR) : भाई फ्रैंक हुजूर नहीं रहे! हृदयाघात से उनका आकस्मिक निधन हो गया। यह बहुत त्रासद है! एक प्रतिभासंपन्न साथी और ईमानदार मित्र को खोना थोड़ा और खाली होने जैसा है। इस अतिशय कोलाहल से भरी आसपास की दुनिया में यही जाना कि मित्रता की एक कसौटी यह भी है कि आपकी अनुपस्थिति में आपको लेकर मित्र कैसी बातें सुनते हैं और करते हैं। अन्य साथियों के जरिए ही अक्सर मालूम हुआ कि वे जिनसे जुड़े रहते थे, उन्हें प्रसन्न और ऊंचाई पर देखना चाहते थे। एक ऐसे दोस्त जो हर परिस्थिति में दोस्ती निभाते थे। पर, उनके हाथ में यश नहीं था या कि कम था कि जो उनसे मदद पाए लोग थे, उनमें से बहुतेरे भस्मासुर निकले और उनके ही विरुद्ध षड्यंत्र में शामिल होते गये। समय रहते वे “विषकुम्भम पयोमुखं” से स्वयं की रक्षा नहीं कर पाए। ऐसे में सहज जीवन जीना सहज नहीं रह जाता! जब बहुत अपने से आप छले जाते हैं, तो क्षण-क्षण अंदर ही अंदर अस्तित्व का क्षय होता रहता है!
सोशलिस्ट फैक्टर नामक मैग्जीन के संपादक के साथ-साथ वे इमरान वर्सेस इमरान (जीवनी), हिटलर इन लव विद मैडोना (नाटक), सोहो: जिस्म से रूह का सफर (संस्मरण), द टीपू स्टोरी (जीवनी), द सोशलिस्ट मुलायम सिंह यादव (जीवनी) आदि के लेखक रहे।
इंसान चला जाता है, सारी नाराजगी उस व्यक्ति के साथ ही खत्म हो जाती है, उनके जाने के बाद आप किससे नाराज होंगे! हम इस बात को समझ लें कि अमृत पीकर हम नहीं आए हैं, एक रोज सबको जाना है और उसकी कोई मुनादी नहीं होगी, तो यह अगली ईगो हम छोड़ सकें! किसी मनुष्य से आप गलती करने की मानवीय वृत्ति भी छीन लेंगे? कोई बड़े हैं, चाहे उम्र से या अनुभव से या शक्ति से, तो उन्हें और विनयशील व उदारहृदय होना चाहिए, बड़प्पन दिखाना चाहिए व संवाद के लिए पहल करनी चाहिए। पर, ऐसा हो नहीं पाता, यही विडंबना है! जिन्हें हम बहुत मानते हैं, उनसे गुस्सा भी हम उतना ही ज्यादा होते हैं। पर, इतना याद रहे कि हमारे बीच से कोई भी कभी भी जा सकता है, और अफसोस के सिवा कुछ नहीं शेष रह जाएगा और हमारा अफ़सोस देखने के लिए भी वह आदमी नहीं होगा हमारे सामने तो फिर ग्लानि ही बचेगी हमारे हिस्से!
लग जाते हम गले पे, किसे कौन टोकता
अपनी अना का ख़ून कोई दिल्लगी नहीं।
एक नेता हर दल के नेताओं से मिलता है शिष्टाचारवश, और उसे यह कहते हुए न्यायोचित ठहराता है कि सार्वजनिक जीवन में हमें अपने बड़ों से मिली सीख का पालन करना चाहिए कि विचारधारात्मक विरोध का अर्थ सामने वाले को दुश्मन समझना नहीं है। पर, उसी दल का एक साधारण कार्यकर्ता अगर भिन्न दल के कार्यकर्ता या नेता से सौजन्यतावश मिलता है तो उसकी पूरी प्रतिबद्धता व वफ़ादारी संदिग्ध होने लगती है। निष्ठा बहुधा नेता की नजर में संदिग्ध नहीं होती है, बल्कि ठकुरसुहाती करने वाले मेडियोकर व छिछले लोग उस नेता को अपने ही कार्यकर्ता को लेकर असुरक्षित महसूस कराने के लिजलिजे काम में संलिप्त हो जाते हैं। जहां ऐसा टॉक्सिक वातावरण बना दिया जाए, वहां सच्चे अर्थों में जो लोग पार्टी हित में काम करते हैं, उनका जीना दूभर हो जाए।
एक परिपाटी फिर से बने कि राजनैतिक दलों के लिए काम करने वाले भले लोग संविधान प्रदत्त अपने मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का अधिकार किसी भी ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति को न दे, ताकि वह सहज रह कर काम कर सके और उसका वाग्स्वातंत्र्य, असहमत होने का हक व सहमत होने का विवेक भी स्वाभिमान के साथ बहाल रह सके! अंततः, संवाद ही लोकतंत्र की प्राणवायु है। पिछले कुछेक वर्षों से फ्रैंक हुजूर अपने वृहत् सोशल सर्कल से थोड़े अलग-थलग से दिखाई पड़ते थे। और, यह कहीं-न-कहीं उन्हें अंदर से कमजोर कर रहा था। वे अपनी पुरानी दुनिया में लौट कर भी आत्मावलोकन करते रहते थे।
इतना ही कह सकता हूं कि वे एक भले आदमी थे जो भस्मासुरों के शिकार हो गये और संवादहीनता के चलते अपने प्रिय व्यक्ति जिनकी वे इज्जत भी करते थे और जिनसे नाराज भी होते थे (यह हक भी उन्हें उनके प्रिय व्यक्ति ने ही कभी दिया था); से दूर होते चले गए! उनके प्रिय व्यक्ति भी कोमल मन के इंसान हैं और उन्हें अभी जो कुछ महसूस हो रहा होगा, उसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता! हम सब बहुत वलनीरेबल हैं, कोई भी वलनीरेबल हो सकता है। वलनीरेबिलिटी चेरिश करने की चीज भले न हो, उसकी रिस्पेक्ट तो की ही जानी चाहिए। भाभी मुक्ता जी, इस वेदना में हमें शरीक समझें! इस वज्रपात को सहने की किसी तरह शक्ति मिले! एक निष्कपट साथी को उदास मन से सलाम!
(लेखक जयंत जिज्ञासु JNU के रिसर्चर रहे हैं और फ्रैंक हुजूर से दिल का संबंध था। इस आलेख में उनके निजी विचार हैं।)