पुस्तक समीक्षा : सिनेमाई और कठोर सामाजिक यथार्थ का मिश्रण है दो गुलफामों की तीसरी कसम

DELHI / PATNA (APP) : हिंदी के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने मारे गए गुलफाम  कहानी 1956 में लिखी। साल भर बाद पटना से प्रकाशित पत्र अपरम्परा में छपी और चर्चे में आ गई। मोहन राकेश में पांच लंबी कहानियां किताब में मारे गए गुलफाम कहानी को शामिल किया, जो राजकमल से प्रकाशित हुई। लेकिन लेखक, साहित्यकार व पत्रकार अनंत की लिखी किताब ‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ की बात ही निराली है। इसे समीक्षक प्रत्युष प्रशांत ने काफी सलीके से आपके लिए अपने शब्दों में परोसा है। यह उनके सोशल मीडिया अकाउंट से लिया गया है। यहां अक्षरशः प्रस्तुत है… 

पने कुल जमा जीवन के मात्र 43 बसंत ही देख सके गीतकार और कवि शैलेंद्र ने हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के मारे गए गुलफाम कहानी को तीसरी कसम नाम से सिने पर्दे पर उतारा, जो हिंदी सिनेमा के इतिहास में आज भी मील का पत्थर है। शैलेंद्र ने साहित्य और सिनेमा दोनों को जिस निकटता के साथ पर्दे पर उतारा, उसमें साहित्य कथा का सिनेमाई  रूपांतरण, कथा से बातचीत, मनोभाव, आत्मीय-मानवीय संबंध के सारे प्रवाह, किरदारों की सत्यता, सादगी और संवेदनशीलता सब एक साथ दर्ज हुई। हिंदी सिनेमा में आज तक साहित्य का इतना बेजोड़ रूपातरण देखने को नहीं मिला है, जो साहित्यक रचना का प्रतिबिंब बनकर पर्दे पर उभरी हो। यह तीसरी कसम फिल्म के सफर के एक हिस्से की कहानी भर है। मारे गए गुलफाम  कहानी से तीसरी कसम को सिनेमाई पर्दे पर उतरने में छह साल संघर्षों से भरी भावनाओं के संमुदर में गोता लगाने वाली यात्रा भी करनी पड़ी। इस पूरे सफर के छोटे-बड़े किस्से-कहानियों के साथ अन्य कई पहलुओं को शिद्दत से पकड़ने का एक ईमानदार प्रयास लेखक अनंत के किताब दो गुलफामों की तीसरी कसम  में दिखती है।

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु ने मारे गए गुलफाम  कहानी 1956 में लिखी, साल भर बाद पटना से प्रकाशित पत्र अपरम्परा में छपी और चर्चे में आ गई। मोहन राकेश में पांच लंबी कहानियां किताब में मारे गए गुलफाम कहानी को शामिल किया, जो राजकमल से प्रकाशित हुई। फिल्मी दुनिया के दहलीज़ पर मारे गए गुलफाम कहानी पटकथा लेखक नवेन्दु घोष के हाथों से बासु भट्टाचार्य के पास पहुंची। बासु भट्टाचार्य ने मारे गए गुलफाम कहानी अपने मित्र गीतकार और कवि शैलेंद्र को पढ़ने दी और उन्होंने अपनी फिल्म इस कहानी पर फिल्म बनाने का तय किया। यहां से तीसरी कसम के बनने के सफर भी शुरू होता है और दो गुलफामों के यारी-दोस्ती का सफर भी, क्योंकि इस निश्चय से पहले न ही शैलेंद्र, न ही फणीश्वर नाथ रेणु एक-दूसरे को जानते थे।

‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ किताब के लेखक अनंत जो इसके पहले देशज अस्मिता और रेणु साहित्य  का संपादन कर चुके हैं। बड़ी ही शिद्धत से फणीश्वर नाथ रेणु के परिवार के सदस्यों, उनके परिचितों से मिलकर, उनके बातचीत के संदर्भों, शोधों, कई रेणु रचनावलीयों और पत्र-पत्रिकाओं में रेणु पर लिखे गए संदर्भों का सहारा लेते हुए, अनंत ने उस सफर को पाठकों के सामने रखा है, जो अभी तक कुछ ही लोगों के स्मृतियों में ही कैद था या फिर फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं के छोटे से कालमों में। 

किताब में पहले गुलफाम कथाकार लेखक फणीश्वर नाथ रेणु और दूसरे गुलफाम गीतकार कवि शैलेंद्र के बीच आत्मीय संबंध के  हर भाव, हर धूंप-छांव को, तीसरी कसम के  पर्दे  पर उतरने के सफर को दर्ज किया गया है। यह सफर कई किस्सों-घटनाओं, संघर्ष-तनाव, उतार-चढ़ाव, फिल्मी दुनिया के दगाबाजीयों और बेईमानियों को समेटे हुए है कि इस पर भी एक बायोपिक बनाई जा सकती है। अनंत मानते हैं कि  मारे गए गुलफाम ने दो गुलफामों को मिलाने, एक-दूसरे का मुरीद बनने और तीसरी कसम के रूप में फिल्म जगत को एक सार्थक और उद्देश्यपरक फिल्म तीसरी कसम देने का काम किया। यह संयोग कभी-कभी ही होता है, जो फिल्मी दुनिया के इतिहास में अपना नाम अमर करने के लिए घटित होता है। अनंत ने तीसरी कसम बनने के रोजनामचे को जिस भाषा में दर्ज किया है, वह कभी फिल्मी पत्रकारिता के रिपोतार्ज शक्ल में लगती है, तो कभी साहित्यक-यायावरी भाषाई शक्ल में दर्ज होती दिखती है। किताब की भाषा एक तिलिस्मनुमा गुफा में पाठक को बांध-सी लेती है। पूरी किताब न ही ऊबाऊ लगती है, न पकाऊ लगती है, पाठक के पठनीयता की अंगुली पकड़े हुए सफर की शुरुआत करती है और अंत तक पाठक की अंगुली थामे रखती है, बाइस्कोप के सफ़र के तरह।

‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ किताब में मारे गए गुलफाम कहानी के पात्र-किरदार रेणु को कब, कहां और कैसे मिले, उनके किरदार किन वास्तविक घटनाओं पर आधारित है, को बड़े ही आँचलिकता के साथ दिखाया गया है। उनके चरित्र, भाषा कैसे-किस तरह रेणु के मन पर एक छाप छोड़ी, जो हीरामन और हीराबाई के चरित्र और फिर किरदार के रूप में दर्ज हुए, इसकी भी बखूबी जानकारी दी गई है। रेणु से पहले कभी नहीं मिले, शलैन्द्र का मन बबंई जैसे मयानगरी शहर में हीरामन और हीराबाई के आत्मीय रिश्ते से परिचित होकर, कैसे अपनी पहली (जो उनकी आखरी फिल्म भी साबित हुई) के लिए राजी हो गए… उनके दिमाग में हिरामन और हीराबाई कैसे उमड़ने-घुमड़ने लगे… बिंबों और प्रतीकों को कैसे सेलुलाइड के रूप में जीवंत किया गया… कहानी के मूलभाव को जीवित रखने के लिए कितनी जद्दोजेहद हुई… कैसे फिल्मी दुनिया का नामी-गिरामी सितारा राजकपूर मात्र एक रुपया लेने के शर्त्त पर फिल्म में काम करने को राजी हो गए.. ग्रामीण परिवेश के कहानी को फिल्माने के लिए बिहार और मध्यप्रदेश के किन गांवों को चुना गया और यह कितना चुनौतीपूर्ण था, पूरी फिल्म कैमरे में कैद करने के बाद भी, कुछ दृश्यों को क्यों फिर से फिल्माया गया, फिल्म के छह साल के सफर से आर्थिक चुनौतियों ने शैलेंद्र को कैसे जकड़ लिया… फिल्म को एडिट करना कितना चुनौतीपूर्ण था और यह लंबी प्रक्रिया दोनों गुलफमों के लिए कितना चुनौतीपूर्ण बन गया था… जैसी सैकड़ों  छोटी-छोटी कहानियों को  लेखक अनंत ने जिस भाषा शैली में दर्ज और प्रस्तुत किया है, वह बेजोड़ है। यह भाषा-शैली एक बार किताब शुरू करने पर अपनी मायाजाल में जैसे जकड़ लेती है, जिससे  निकलने के लिए किताब को खत्म करना जरूरी जान पड़ने लगता है। 

‘दो गुलफामों की तीसरी कसम’ किताब के पहले पांच अध्याय, मारे गए गुलफाम कहानी से तीसरी कसम फिल्म के बनने और उसके पर्दे के सफर तक पहुंचने तक की कहानी को बयां करती है। उसके बाद के पांच अध्याय उस संघर्षपूर्ण सफ़र के तरफ ले जाती है, जिसमें टूटते-बिखरते सपने का सफर शुरू होता है, जिसमें कहानीकार फणीश्वर नाथ रेणु और गीतकार शैलेंद्र, दोनों ही मानसिक तनाव के शिखर तक एक साथ सफर कर रहे थे। शैलेंद्र के लिए यह सफर एक भंवर में फंस जाने जैसा था, क्योंकि आर्थिक चुनौतियों ने उनको बुरी तरह जकड़ लिया था। मानसिक-आर्थिक चुनौतियों के भंवर में फंसे दोनों गुलफामों ने तमाम दवाब के बाद भी फिल्म का अंत बदलने के लिए समझौता नहीं किया। शैलेंद्र ने तो यहां तक कह दिया भले ही मेरा नाम हटा दो, कहानीकार का नाम पूरा जाना चाहिए। शैलेंद्र के लिए तो यह सफर उनके शहीद हो जाने तक चला गया, वह फिल्म के प्रीमियर भी नहीं दे सके और इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

लेखक अंनत की किताब का पहला भाग अगर सिनेमाई यथार्थ के करीब लगता है, तो दूसरा हिस्सा उस सामाजिक यथार्थ के करीब लगता है जिसको तीसरी कसम फिल्म देखने वाले दर्शक नहीं जानते हैं। तीसरी कसम फिल्म के सिनेमाई यथार्थ और कठोर सामाजिक यथार्थ को लेखक अनंत ने अपनी किताब दो गुलफामों की तीसरी कसम किताब के माध्यम से सतह पर लाकर रखा है।

दो गुलफामों की तीसरी कसम पुस्तक समीक्षा

लेखक – अनंत

प्रकाशक – कीकट प्रकाशन, नई दिल्ली

पेज – 240 / कीमत- 650/-

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