
PATNA (RAJESH THAKUR) : चुनावी साल में बिहार विधानमंडल का बजट सत्र शुरू हो गया है। यह सत्र पूरे एक माह चलेगा। इसी बीच राज्य में चुनावी हलचल भी तेज हो गयी है। तमाम राजनीतिक पार्टियां इसकी तैयारियों में जुट गयी हैं। रैलियों का भी दौर शुरू हो गया है। राजनीतिक दलों से जुड़े संगठन तो जातीय रैली से लेकर सम्मेलन तक करने लगे हैं। तेली-सूड़ी से लेकर कोईरी, कुर्मी, धानुक, चंद्रवंशी, धोबी समाज तक के छोटे से लेकर बड़े कार्यक्रम तक एक राउंड हो गये हैं। जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए बिहार कैबिनेट का विस्तार भी हुआ है। केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हम की ओर से तो पटना के गांधी मैदान में ‘दलित समागम’ का आयोजन किया गया, जिसमें गठबंधन धर्म का पालन करते हुए जदयू की ओर से सीएम नीतीश कुमार तो भाजपा की ओर से डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी शामिल हुए। उसी गांधी मैदान में अब ‘Right’ को बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में पटकनिया देने के लिए 2 मार्च को ‘Left’ का महाजुटान हुआ। महागठबंधन के मजबूत घटक दलों में शामिल भाकपा-माले ने ‘बिहार बदलो महाजुटान’ का आयोजन किया। इसमें पार्टी के तमाम बड़े नेता शामिल हुए।


दरअसल, बिहार में वामदलों ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। एक समय था, जब भाकपा (CPI) बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल हुआ करती थी। माकपा (CPM) और भाकपा-माले (CPM-ML) का भी कई क्षेत्रों में वर्चस्व रहा। बाद के दिनों में समाजवादी दलों और नेताओं के उदय से वाम दल कमजोर पड़ गये। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के इतिहास में कई ऐसे मौके भी आए, जब बिहार में वामदलों को सीटों के लाले पड़ गए। लेकिन, महागठबंधन में शामिल होने से तीनों वामदलों को संजीवनी मिली है। 2015 के विधानसभा चुनाव में जहां इसका प्रदर्शन संतोषजनक रहा, वहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में वामदलों ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। इन तीनों वामदलों में सबसे अधिक सफलता भाकपा-माले को मिली। बता दें कि बिहार में वामदलों में सबसे पुरानी पार्टी भाकपा है।
1960-70 के दशक में भाकपा बिहार की सियासत में चरम पर थी। 1972 में इसे 35 सीटें मिली थीं। इस संख्या के बल पर यह पार्टी बिहार विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गयी।
इसके बाद वामदलों में गिरावट के साथ बिखराव होने लगा तथा 1964 में पार्टी टूट गयी। भाकपा से टूटकर एक नयी पार्टी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी माकपा बन गयी। 80 के दशक में मध्य और दक्षिण बिहार में लेफ्ट पॉलिटिक्स (Left Politics) पर नक्सलवाद का आरोप लगने लगा। इसी बीच आईपीएफ के बैनर तले एक और संगठन भाकपा-माले चुनाव मैदान में आ गया। इसमें माले को 1989 के लोकसभा चुनाव में आरा संसदीय सीट पर जीत मिली। इस जीत ने सियासी गलियारों में सबको चौंका दिया। लेकिन सबसे ज्यादा पार्टियां तब चौकीं, जब माले को 1990 के विधानसभा चुनाव में 7 सीटों पर जीत मिली। हालांकि, यह सफलता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी। बीच के कई चुनावों में वामदल जीरो पर आउट हो गया। किंतु अब पहले वाली बात नहीं रही। महागठबंधन ने माले को जबरदस्त ढंग से संजीवनी दे दी है और भाजपा के ‘अमृतकाल’ में सर्वाधिक ‘सियासी अमृत’ भाकपा-माले को ही मिली है।
आंकड़े बताते हैं कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में एक लंबे अरसे के बाद लेफ्ट पार्टियों ने इस कदर बेहतरीन परफॉरमेंस दिया। उस समय यदि कांग्रेस की कुछ सीटों की कटौती कर वे सीटें माले को दे दी जातीं तो बेशक यहां का रिजल्ट कुछ और होता।
यदि हम फ्लैशबैक चलते हैं तो पाते हैं कि भाकपा-माले को 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में 3.6% वोट. मिला था। उसकी तुलना में उसे 3 सीटें मिली थीं। उस चुनाव में महागठबंधन में राजद के साथ जदयू भी शामिल था। इस वजह से वामदलों को कम सीटें मिली थीं। लेकिन, 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में उसे 2015 की तुलना में अधिक वोट मिले। माले को 3.16% वोट प्राप्त हुए थे। लेकिन सीटों में जबरदस्त इजाफा हुआ था। 2020 में माले को 12 सीटें आयी थीं। इतना ही नहीं, 2015 के चुनाव में जीरो पर आउट होने वाले CPI और CPM को भी 2-2 सीटें आयी थीं।
आंकड़े बताते हैं कि भाकपा माले 1990 से बिहार विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतारती आ रही है। इस पार्टी का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2005 फरवरी के चुनाव में था, जब कुल 7 प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई। हालांकि पार्टी का पहले चुनाव 1990 में तथा इसके बाद 2010 में सबसे खराब प्रदर्शन रहा था। उन चुनावों में माले एक भी सीट नहीं जीत पाया था। माले को 1995 में 6, 2000 में 6, 2005 (फरवरी) में 7, 2005 (अक्टूबर) में 5, 2015 में 3 तथा 2020 में 12 सीटें आयी थीं। चुनाव के इतिहास में माले को 2020 के चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी सफलता मिली थी। बता दें कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी माले को 2 सीटों पर सफलता मिली थी। दरअसल, लोकसभा चुनाव 2024 में महागठबंधन को 9 सीटों पर जीत मिली थी। यह प्रदर्शन उम्मीद से काफी बेहतर था। 9 सीटों में 2 सीटों पर जीतकर माले ने बता दिया कि उसे कोई कमजोर नहीं समझें।

बहरहाल, अब माले की नजर 2025 की चुनावी लड़ाई पर है। कहा जाता है कि महागठबंधन में बेहतर हिस्सेदारी के लिए पार्टी ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है। उनके नेता रणनीति पर काम करने लगे हैं। इसी का एक बड़ा कदम पटना के गांधी मैदान में ‘बिहार बदलो महाजुटान’ था। कार्यक्रम की सफलता ने बेशक पार्टी के मनोबल को बढ़ाया है और पार्टी अब महागठबंधन में अधिक हिस्सेदारी को लेकर अगली रणनीति में जुट गयी है। गांधी मैदान के मंच से माले के महासचिव दीपांकार भट्टाचार्य ने कहा कि विभिन्न आंदोलनकारी ताकतों की एकता का यह जो आगाज हुआ है, वह बिहार में बदलाव की ओर एक महत्वपूर्ण कदम है। किसान दिल्ली में एकजुट हुए और मोदी सरकार को कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर किया। ठीक वैसे ही, बिहार के मजदूर-किसान भी यदि चाह लें तो चार लेबर कोड वापस करवा सकते हैं। पुरानी पेंशन स्कीम लागू हो सकती है।

