चल बैठें चांद के नीचे, शरद पूर्णिमा पर ध्रुव गुप्त का पढ़ें सारगर्भित आलेख

PATNA (SMR) : आज 28 अक्टूबर दिन शनिवार को शरद पूर्णिमा की रात है। इस रात चांद अपने पूरे शवाब पर रहता है। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर ध्रुव गुप्त ने अपने रोचक आलेख से शरद की चांद को और अधिक रोचक बना दिया है। आप इसे अक्षरशः पढ़िए।

रद पूर्णिमा की रात। साल की सबसे जादुई की रात। जादू-शीत की आहट के साथ तन-मन में जागते रूमान का। जादू आहिस्ता-आहिस्ता अंगड़ाई लेती कोमल भावनाओं का। आज की रात चांद कुछ अलग ही दिखता है। इस पर आंखें गड़ा दीजिए तो ऐसा लगेगा जैसे आकाश से गीले-गीले ख़्वाबों में डूबा कोई धवल चेहरा आपको हसरत से ताक रहा है। इसे प्रेमियों की रात कहा गया है। कई प्राचीन संस्कृत काव्यों में उल्लेख है कि शरद पूर्णिमा की रात प्रेमी किसी उपवन में या सरोवर-तट पर एकत्र होकर प्रिय के आगे प्रणय-निवेदन करते थे।

इस परंपरा को तब सामाजिक स्वीकृति प्राप्त थी। यह वही रात थी जब श्री कृष्ण ने प्रेम में डूबी गोपियों के साथ मधुबन में महारास रचाया था। कदंब के पेड़ों से झरती चांदनी के नीचे कृष्ण की बांसुरी की तान और गहन प्रेम की लय पर गोपियों का सामूहिक नृत्य। युगों से लोगों का भरोसा रहा है कि शरद पूर्णिमा की  इस रात चांद की किरणों से अमृत झरता है, जिसमें प्रेमी अगर स्नान कर लें तो जन्म-जन्मान्तर के अटूट बंधन में बंध जाते हैं।

अपने बचपन में हम में से बहुत लोगों ने गांव में कदंब के वृक्ष के नीचे परिवार और मित्रों के साथ शरद पूर्णिमा की रात का आनंद लिया होगा। चांदनी में नहाई शीतल खीर भी खाई होगी। जवानी में जब तक इस रात के पीछे का रूमान समझ में आया, तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। कदंब के पेड़ लुप्त हो चुके थे। आकाश का धवल चांद उदास पड़ चुका था। शहरों की कृत्रिम रौशनी ने उसकी चमक छीन ली थी और कोलाहल ने उसका एकांत। जीवन की जटिलता और आपाधापी ने उसके साहचर्य का सुख। बचपन के बाद जवानी का रूमान तो आया, लेकिन शरद पूर्णिमा की रात की वह चमक फिर कभी देखने को नहीं मिली। शहरों में रहने वालों के लिए यह रात किताबों और फिल्मों में ही बची रह गई है। जो लोग आज भी गांवों में हैं, वे इस रात का अर्थ और रोमांच भूल चुके हैं।

परिस्थितियां जैसी भी हों, जीवन रुकता कहां है ? अपनी तरफ से उनमें कुछ-कुछ जोड़-घटाकर, कल्पनाओं के अक्षय कोष से कुछ बाहर निकालकर जीवन में रंग भरने होते हैं। बहुत कुछ बदल जाने के बावजूद शरद पूर्णिमा की रात अब भी आती है। क्या हुआ जो कदंब से छनकर आती चांदनी का तिलिस्म और प्रेम का कोई एकांत कोना अब नहीं बचा। चांदनी में नहाई छत और कल्पनाओं का खुला आकाश तो अब भी हमारे पास है। छत पर खीर का कटोरा चांदनी के हवाले करिए और चादर बिछाकर चुपचाप लेट जाइए। कृत्रिम चकाचौंध और शोरगुल को नजरअंदाज कर देह पर झरती चांदनी का मुलायम स्पर्श और सरसराती हवा की गुदगुदी महसूस करिए।

छत पर आप अपने प्रिय के साथ हैं तो चांद उंगलियां पकड़कर प्रेम की आंतरिक और अजानी अनुभूतियों तक ले जाएगा आपको। आप परिवार के साथ हैं तो ऐसा महसूस होगा कि आपके बीच चांद एक बच्चे की तरह चुपके से आकर बैठ गया है। छत पर आप अकेले हैं तो अकेले चांद को एकटक निहारिए। उससे कुछ बातें करिए। उसे कुछ शेर-वेर सुनाइए। क्या हुआ जो वह आपकी पहुंच से दूर, बहुत दूर है। अगर फ़ासला न हो तो प्रेम टिकता भी कितनी देर है – इसका जादू भी फ़ासले का है जादू, ऐ दिल / चांद मिल जाए तो फिर चांद कहां रहता है !

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