सावन का दर्द : पेड़ ही नहीं बचे तो कहां लगेंगे झूले…

PATNA (SMR) : सावन के महीना का हर किसी को इंतजार रहता है। यह हरियाली का महीना है। यह खुशहाली का महीना है। यह पर्व-त्यौहार का महीना है। लेकिन लोगों की लाइफ स्टाइल ने मौसम चक्र को बदल दिया है। ऐसे में सावन की बात भी नहीं रही। सावन के इस दर्द को बीजेपी के वरीय नेता सुरेश रुंगटा ने अपने शब्दों में पिरोया है। उन्होंने उन दिनों को भी याद किया है, जब सावन आते ही बागों में बहार आ जाती थी। पेड़ों पर झूले लग जाते थे, लेकिन अब…?? इस आलेख में लेखक सुरेश रुंगटा के निजी विचार हैं।

ज्येष्ठ महीने की तपन और आषाढ़ के उमस भरे दिनों के पश्चात सभी को सावन की ठंडी फुहारों और मनोरम मौसम का विकलता से इंतजार होता है। सावन की रिमझिम बारिश की बूँदे जब प्यासी धरती पर पड़ती है, उस समय मिट्टी से उठने वाली सोंधी सुगंध सभी का मन मोह लेती है। यह है सावन की महिमा।

नदियाँ, पशु-पंछी, पेड़-पौधे यानी वनस्पति जगत में नवजीवन का पुनः संचार हो चुका है। झिंगुर, कोयल और मेढकों की टर्र-टर्राहट गल्ली-कूचों में सुनाई पड़ने लगी है। नदियाँ तटबंधों को ढहाते हुए मटमैले पानी के साथ बाढ़ का रूप धारण कर अपने प्रियतम यानी अपनी मंजिल समुद्र से मिलने हेतु सरपट भागे जा रही है। कर्ण मधुर ध्वनियाँ करते हुए भँवरे पुष्प विहीन नलिनियों को कमल समझने की नादानी कर उस पर ही टूट पड़े हैं।

फिल्म नगीना का एक गीत है- ‘सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेसी घर चला आया’ यह पूरा गाना झूले पर है। इसी तरह एक फिल्म आई थी ‘जुर्माना’। उसका एक मधुर गीत था- ‘सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ, तुम चले आओ।’ जी हाँ, हम सावन के झूले की बात कर रहे हैं। झूला पांच हजार साल से भी ज्यादा समय से हमारे जीवन का हिस्सा रहा है। झूला हमें खुद को बैलेंस रखने की सीख देता है। झूले का एक पींग हमको पहले आगे बढ़ाता है, फिर पीछे ले जाता है। ये आगे बढ़ना और पीछे आना, फिर आगे बढ़ना वास्तव में जीवन का हिस्सा है। जिंदगी में भी झूले की तरह खुद को संतुलित रखना पड़ता है। झूला झूलना न केवल हमें खुशी देता है, बल्कि यह हमारी शारीरिक व मानसिक सेहत दोनों के लिए लाभकारी है।

झूलने का शारीरिक लाभ यह होता है कि इससे बॉडी अवेयरनेस बढ़ती है। हमारे शरीर के ज्वाइंट में रिसेप्टर्स होते हैं और वे जब एक्टिव होते हैं तो बॉडी का पूरा व्यायाम हो जाता है। झूले को गति देने के लिए बार-बार खड़े होकर आधा झुककर उठना पड़ता है। इससे ज्वाइंट एक्टिव हो जाते हैं। इन क्रियाओं से एक ओर रस्सी को कस कर पकड़ने से हाथ, हथेलियाँ और अंगुलियां शक्तिशाली होती हैं, वहीं दूसरी ओर हाथ-पैर की पूरी कसरत हो जाती है। साँसों को वेग से लेने और छोड़ने के कारण फेफड़े सुदृढ़ हो जाते हैं, जो पूर्ण प्राणायाम है।

झूला झलने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है हमारी बॉडी और झूले का आपस में कोआर्डिनेशन। इसे बनाए रखने के लिए हमें अपने शरीर के अंगों के साथ-साथ मानसिक रूप से भी बिलकुल सजग रहना पड़ता है। तीस वर्ष पूर्व तक आम, इमली, महुआ, पीपल और नीम के पेड़ों की डालियों पर सावन माह में झूले बाँधे जाते रहे थे। पूर्व से हमारे देश में यह परंपरा रही है कि विवाह के बाद पड़ने वाले पहले सावन माह में नई ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती थीं और बगीचों में भाभियों और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती थीं, लेकिन आज की लड़कियों को यह प्राकृतिक झूलों का आनंद कहां मिल पाता है? अब तो पेड़ ही नहीं बचे तो झूले कहां लगेंगे? सावन के इन झूलों की यादें तो अब स्मृति में ही सिमट कर रह गई है।

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