MADHUBANI (APP) : मिथिलांचल में लोक आस्था का पर्व है सामा चकेवा। यह छठ के समापन के दूसरे दिन शुरू होता है और कार्तिक पूर्णिमा पर समापन होता है। यह पर्व दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर समेत मिथिलांचल के विभिन्न जिलों में धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व के होने के पीछे भाई-बहन के बीच प्रेम संबंधों को दिखाया गया है। इस पर्व में सामा बहन के रूप में है, जबकि चकेवा भाई के रूप में। सामा-चकेवा को लेकर कई किवदंतियां भी है। 

इस पर्व के दौरान ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं रोज एक जगह इकट्ठा होकर सामा-चकेवा से जुड़ी लोकगीत गाती हैं और आपस में मूर्तियों का आदान-प्रदान करती हैं, गांव की बोली में फेरा कहा जाता है। यह सिलसिला कार्तिक की पूर्णिमा तक चलता है। पूर्णिमा के दिन सामा का खोईंछा भराई के बाद उनका विसर्जन किया जाता है। 

दरअसल, बिहार के मिथिलांचल में सामा-चकेवा का खास महत्व है। यह पर्व छठ के साथ ही शुरू हो जाता है और धूमधाम से मनाने की परंपरा है। इस पर्व को भाई-बहन के प्यार के तौर पर मनाया जाता है। इसको लेकर मूर्तिकार सामा-चकेवा के साथ सतभैया, चुगला जैसे जुड़ी तमाम मूर्तियों का निर्माण करते हैं। सामा-चकेवा पर्व का संबंध पर्यावरण से भी माना जाता है। पारंपरिक लोक​गीतों से जुड़ा सामा-चकेवा मिथिला संस्कृति की वह खासियत है, जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त जड़ बाधाओं को तोड़ता है। आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहनें अपने भाइयों को धान की नयी फसल का चूड़ा-दही खिला कर सामा-चकेवा की मूर्तियों को तालाब में विसर्जित कर देते हैं। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान कृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्भ के बीच अपार स्नेह था। कृष्ण की पुत्री श्यामा ऋषि कुमार चारूदत्त से ब्याही गयी थी। श्यामा ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रमों में जाया करती थी। भगवान कृष्ण के मंत्री चुरक को रास नहीं आया और उसने श्यामा के विरूद्ध राजा से शिकायत करना शुरू कर दिया। क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण ने श्यामा को पक्षी बन जाने का श्राप दे दिया। श्यामा का पति चारूदत्त भी शिव की पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर स्वयं भी पक्षी का रूप प्राप्त कर लिया। श्यामा के भाई एवं भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ ने अपने बहन-बहनोई की इस दशा से दुखी होकर अपने पिता की आराधना शुरू कर दी। इससे प्रसन्न होकर श्राप से मुक्ति के उपाय बताया। शरद महीने में सामा-चकेवा पक्षी की जोड़ियां मिथिला में प्रवास करने पहुंच गयी थीं. भाई शाम्भ भी उसे खोजते मिथिला पहुंचे और वहां की महिलाओं से अपने बहन-बहनोई को श्राप से मुक्त करने के लिए सामा-चकेवा का खेल खेलने का आग्रह किया और कहते हैं कि उसी द्वापर युग से आजतक इसका आयोजन हो रहा है। 

सामा-चकेवा को पूरे मिथिला में भाई-बहन के प्रेम और सौहार्द का प्रतीक पर्व माना जाता है। इस पर्व में सामा-चकेवा के अलावा कई और मूर्तियां बनायी जाती हैं, जिसका अपना एक अलग महत्व होता है। सामा-चकेवा के अलावा वृंदावन, चुगला, सतभइया, ढकना, खटिया, पौउती जैसे मिट्टी की सामग्री बनती है और बहना इसके साथ पूजा करती हैं।

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