बाबू देवकीनंदन खत्री के ननिहाल पहुंचीं गीताश्री, ‘चंद्रकांता’ को पाकर भावविह्वल हो उठीं

PATNA (APP) : बाबू देवकीनंदन खत्री। हिंदी साहित्य जगत का बड़ा नाम। बिहार के गौरव। लेखनी की धार ऐसी मन में समायी कि ठेकेदार से साहित्यकार बन गए। बाबू देवकीनंदन खत्री की लेखनी ने चंद्रकांता के अलावा चंद्रकांता संतति, काजर की कोठरी, नरेंद्र मोहिनी, कुसुम कुमारी, वीरेंद्र वीर, गुप्त गोदना, कटोरा भर आदि की झड़ी लगा दी। उनका जन्म 18 जून 1861 को बिहार के मुजफ्फरपुर में और निधन एक अगस्त 1913 को काशी में हुआ था। मुजफ्फरपुर की ही साहित्यकार गीताश्री पिछले दिनों खत्री साहेब के समस्तीपुर स्थित ननिहाल पहुंचीं। वहां जो कुछ हुआ, उसे वे किश्तों में लिख रही हैं। उसी का एक पार्ट यहां लिया गया है उनके फेसबुक वाल से…

गीताश्री लिखती हैं- इतने बरस मुजफ्फरपुर रही, कभी साहित्यिक जड़ें तलाशने की कोशिश नहीं की। अब जबकि बहुत दूर हूं, उस शहर में मुसाफ़िर की तरह आना-जाना होता है तो साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत तलाशने निकली हूं। इस बार मालीनगर ( जिला -समस्तीपुर) जाना हुआ। देवकीनंदन खत्री के ननिहाल होकर आयी, जहां वे पैदा हुए और कई बरस रहे। उनके वंशजों ने बताया कि मालीनगर के प्राचीन मंदिर जो गंडक नदी के किनारे है, वहां बाहर चबूतरे पर बैठ कर उन्होंने चंद्रकांता का दो खंड लिखा। जिला प्रशासन के दस्तावेज में भी इसका जिक्र है। मैंने वो भी देखा। खैर…

वैसे तो खत्री जी घुमक्कड़ थे और जंगल-जंगल, नदियां, पहाड़ सब लांघते रहते थे। बताते हैं कि उन्हें व्यापार के सिलसिले में भी बाहर जाना पड़ता था। खासकर गया के आसपास पहाड़ और जंगल को चांदनी रात में बैठ कर निहारा करते थे। उनके मिजाज में एक तरफ मालीनगर की सामंती ठसक थी तो दूसरी तरफ बनारसी मौज-मस्ती भी थी। उनके पूर्वज मुल्तान से आए थे और मालीनगर गांव में उनके समुदाय की बस्ती बस गई थी। ये सब धनी व्यापारी थे। 

अभी भी खत्री जी के परिवार की वंशावली संभाले कुछ लोग हैं जो सगर्व इतिहास बताते हैं। खत्री जी कई भाषाओं के ज्ञाता थे। शिक्षा-दीक्षा भले उर्दू, फ़ारसी में हुई, बाद में हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी की पढ़ाई की। जब लेखन का मन बनाया तो हिंदी को अपनाया और एक अलग तरह के तिलिस्म से हिंदी संसार को बांध लिया। मालीनगर में उनका घर नहीं बचा है, आज वहां खेत है। बचे हैं तो सिर्फ 200 साल पुराना मंदिर और वह मौलश्री का पेड़, चबूतरा जिसके नीचे बैठ कर वे लिखा करते थे। वहां सामने गंडक नदी बहती हुई मंदिर की सीढ़ियों तक आ जाती थी और नदी पार घने जंगल दिखाई देते थे।

उनके वंशज चाहते हैं कि मालीनगर गांव में खत्री जी का स्मारक बने। गांव के दोनों ओर, प्रवेश द्वार पर उनके नाम का गेट बने। इसके लिए वे लोग प्रयासरत हैं। राज्य सरकार, स्थानीय विधायक और जिला प्रशासन को लिखित आवेदन दिया है। दो साल हो गए, कोई सुनवाई नहीं हुई। मंदिर का निर्माण रायबहादुर कृष्ण नारायण महथा ने किया था। मंदिर के मुख्य पुजारी हैं प्रेम वाजपेयी। उनके पुरखे मंदिर की देखरेख करते चले आ रहे हैं और रायबहादुर के वंशज (खत्री जी का खानदान) के धनाढ्य वंशज मंदिर को मेंटेन करते हैं। मिलने पर वे बड़े प्रेम से चंद्रकांता उपन्यास का पहला संस्करण दिखाते हैं, जो पीढ़ियों से उनके पास सुरक्षित है। उनके पूर्वज को खत्री जी ने दिया था।

बता दें कि बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म मुजफ्फरपुर में हुआ था। बाद में उनका पूरा परिवार काशी के लाहौरी टोला मुहल्ले (अब काशी धाम में विलीन) में आकर बस गया। बचपन से ही घुमक्कड़ी तबीयत के मालिक देवकी बाबू ने तरुणाई में जब मीरजापुर (अब सोनभद्र भी) में वृक्षों की कटान का ठेका लिया तो उन्हें इस क्षेत्र के वन क्षेत्र में विचरने का भरपूर मौका मिला। उन्होंने इस दौरान नौगढ़, विजयगढ़ जैसी जागीरों के प्राचीन गढ़ों व किलों में घूमने का भी अवसर मिला। यहीं से उनके उर्वर मस्तिष्क में तिलिस्मी उपन्यासों की रचना का विचार आया। सोच जब पक्के इरादे में बदली तो हिंदी साहित्य का पहला परिचय हुआ चंद्रकांता नाम से प्रकाशित पहले तिलिस्मी उपन्यास से और उसके अय्यार व अय्यारी जैसे पात्रों से। यहीं से हिंदी में पहली बार थ्रिलर लेखन की शुरुआत हुई। ‘चंद्रकांता’ हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में एक है, जिसका पहला प्रकाशन वर्ष 1888 में हुआ था।

बाबू देवकीनंदन खत्री ने आरंभिक शिक्षा के बाद टिकारी स्टेट की दीवानी का काम संभाल लिया। इसी दौरान उनकी निकटता तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह से हुई और उनकी अनुकंपा से उन्हें नौगढ़ व विजयगढ़ जैसे सुदूरवर्ती वनों में वृक्षों की कटाई का ठेका प्राप्त हुआ। इस परिवर्तन का परिणाम यह रहा कि उन्हें अपनी तबीयत के अनुरूप सैर-सपाटे का भरपूर मौका मिला और वे एक तरह से इन वनों के यायावर बन गए। फिर खत्री ने अपनी से लेखनी से उपन्यास से झड़ी लगा दी।

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