Rajesh Thakur / Patna : भाजपा अपने निर्णयों से हमेशा चौंकाते आयी है। चाहे दिल्ली सीएम का मामला हो या फिर गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान की सियासत हो; कोई भी निर्णय एक झटके में लेती है। बस, इसके लिए उसके पास सियासी ताकत रहनी चाहिए। ताजा उदाहरण बिहार का है। बिहार में एनडीए को मिली प्रचंड जीत और 89 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी भाजपा ने नितिन नवीन को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर दिल्ली तक की सियासत को चौंका दिया। खुद नितिन नवीन ने कहा कि इसकी तो हमने सपने में भी कल्पना तक नहीं की थी। पॉलिटिकल एक्सपर्ट तक की गणित मोदी-शाह की रणनीति के आगे बुरी तरह फेल हो गयी। सारी बड़ी राजनीतिक पार्टियां ‘सोशल इंजीनियरिंग’ पर जोर दे रही हैं, लेकिन भाजपा ने बिहार के साथ-साथ देशभर में सबसे कम आबादी वाले समाज से आने वाले नेता नितिन नवीन को राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष का पद देकर बता दिया कि अब ‘लीक’ पर चलने का जमाना नहीं रहा। अब ‘सोशल कोर्डिनेशन’ का जमाना है। यह केवल नितिन नवीन के साथ ही नहीं हुआ है, इनकी नियुक्ति के महज 20 घंटे के अंदर बिहार के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर संजय सरावगी को बिठाकर कुछ ऐसा ही मैसेज दिया है, क्योंकि बांकीपुर विधायक नितिन नवीन के कायस्थ समाज की तरह ही दरभंगा शहरी क्षेत्र के विधायक संजय सरावगी का मारवाड़ी समाज की संख्या भी बिहार में नगण्य है।



राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण : दरअसल, बिहार की राजनीति जाति आधारित मानी जाती है। आंकड़े के अनुसार भाजपा अब तक सवर्ण के साथ ही ईबीसी पर जोर देती आ रही थी तो राजद माय समीकरण पर। इसी तरह जदयू लवकुश समीकरण पर। बाकी दल भी अपने-अपने हिसाब से जातियों के बीच गोटी सेट कर रहे हैं। बिहार में हुए जातीय सर्वे और देशभर में होने वाली जातीय जनगणना को इसी राजनीतिक चश्मे से देखा जा रहा है। ऐसे में नितिन नवीन की नियुक्ति का सामाजिक संदर्भ राजनीतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। बिहार में कायस्थ की संख्या कुल आबादी का लगभग 0.6 प्रतिशत के आसपास है, जबकि देश के स्तर पर यह आंकड़ा और भी कम है। हालांकि, इससे किसी को इनकार नहीं है कि संख्या के लिहाज से छोटा यह समाज ऐतिहासिक रूप से प्रशासन, शिक्षा, न्यायिक और बौद्धिक क्षेत्रों में प्रभावी भूमिका निभाता रहा है। लेकिन कायस्थ समाज की भूमिका को पॉलिटिक्स में लोग कमतर ही आंकते हैं।

पिता भी थे भाजपा के मजबूत स्तम्भ : यह सही है कि नितिन नवीन का राजनीतिक सफर काफी समृद्ध है। बिहार की सियासत के मजबूत स्तम्भ रहे पिता नवीन किशोर प्रसाद सिन्हा के निधन के बाद नितिन नवीन का राजनीतिक सफर शुरू हुआ है। सबसे पहले वे पिता के निधन के बाद खाली हुए पटना पश्चिम की सीट से 2006 में उपचुनाव जीते। 2008 के परिसीमन में इस सीट का नाम ‘बांकीपुर’ हो गया। इसके बाद से वे लगातार जीतते आ रहे हैं। 2025 के चुनाव में मिली विजय से उनकी पांचवीं पारी शुरू हुई है। दो टर्म से बिहार सरकार में मंत्री भी हैं। वे संगठन और सरकार, दोनों में निरंतर सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। 2006 में विधायक बनने के बाद 2008 से उनके कांधे पर संगठन की भी जिम्मेदारी दी गयी।
युवा मोर्चा में मिला था महत्वपूर्ण दायित्व : युवा होने की वजह से युवा मोर्चा को मजबूत और विस्तार करने का दायित्व मिला। उन्होंने न केवल युवा मोर्चा में प्रदेश अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रीय मंत्री तक की जिम्मेदारी संभाली, बल्कि सिक्किम और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में चुनाव प्रभारी के रूप में अपना अहम रोल निभाया। आप कह सकते हैं कि नितिन नवीन ने युवा मोर्चा से लेकर राज्य सरकार और फिर राष्ट्रीय संगठन तक एक ऐसे नेता की पहचान बनायी, जिन्होंने काफी संतुलित ढंग से संगठन को साधा। नगर विकास और पथ निर्माण जैसे बड़े विभागों के मंत्री बनने के बाद भी उन पर कोई दाग नहीं लगा है। यही वजह है कि पार्टी नेतृत्व ने उन्हें राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष जैसे अहम पद की जिम्मेदारी सौंपी है।
नितिन नवीन की ताजपोशी के मायने : बहरहाल, भाजपा का यह कदम इस ओर संकेत करता है कि पार्टी अब केवल बहुसंख्यक जातीय समूहों के संख्यात्मक समीकरणों पर निर्भर नहीं रहना चाहती। नितिन नवीन की ताजपोशी को उस रणनीतिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें पार्टी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन और समन्वय को प्राथमिकता दे रही है। इसे सियासी महकमे में भाजपा की सोशल कोऑर्डिनेशन नीति के रूप में परिभाषित किया जा रहा है, जहां प्रतिनिधित्व प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि भरोसे और सहभागिता पर आधारित हो। सियासी पंडितों की मानें तो यह संदेश केवल कायस्थ समाज तक सीमित नहीं है। इसके जरिए भाजपा उन सभी सामाजिक वर्गों को यह संकेत देना चाहती है, जिनकी जनसंख्या भले ही कम हो, लेकिन उनकी सामाजिक और संस्थागत भूमिका महत्वपूर्ण रही है।

नेतृत्व का रास्ता केवल संख्या से नहीं : पार्टी यह स्पष्ट करना चाहती है कि नेतृत्व का रास्ता केवल संख्या से नहीं, बल्कि संगठनात्मक क्षमता, निरंतरता और राजनीतिक समझ से तय होता है और यह नितिन नवीन की नियुक्ति के महज 20 घंटे के अंदर फिर दिखा, जब भाजपा ने बिहार में पार्टी की कमान मारवाड़ी समाज से आनेवाले संजय सरावगी को सौंप दी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह भाजपा की बदलती राजनीति का संकेत है, जहां जातीय गणित की जगह सामाजिक संतुलन और समन्वय को आगे रखा जा रहा है। यह फैसला आने वाले समय में न केवल संगठन के भीतर शक्ति संतुलन को नयी दिशा देगा, बल्कि बाहर भी यह संदेश जाएगा कि भाजपा अब समाज के हर हिस्से को साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम कर रही है।





