Rajesh Thakur l Patna : देश के मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार दो-तीन के अंदर बिहार आएंगे। इसके बाद किसी भी दिन निर्वाचन आयोग की ओर से अधिसूचना जारी हो जाएगी। वैसे माना जा रहा है कि 6 या 7 अक्टूबर को अधिसूचना जारी होगी और नवंबर में दो या तीन चरणों में वोटिंग करायी जाएगी। जैसे-जैसे चुनाव की संभावित तिथियां नजदीक आती जा रही हैं, वैसे-वैसे संभावित प्रत्याशियों की धड़कनें तेज होती जा रही हैं। इन सबके बीच राजनीतिक दलों में भी खूब ‘सियासी पैंतरेबाजी’ हो रही है। इसमें छोटे से लेकर बड़े दल तक शामिल हैं और इसके जरिये वे अधिक से अधिक सीटें झपटना चाह रहे हैं। यह सियासी बीमारी एनडीए और इंडिया, दोनों के ही घटक दलों को लगी हुई है। हालांकि, कुछ दलों में नरमी भी आयी है और वे डिमांड से कम सीटों पर भी समझौता करने को तैयार हैं। लेकिन, यह भी शो करना चाहते हैं कि हमें ‘इग्नोर’ करने की भूल नहीं करें।

दरअसल, बिहार की सियासत अब पूरी तरह चुनावी मोड में आ गया है। हालांकि, अभी किसी भी दल ने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा नहीं की है, लेकिन उनकी पैंतरेबाजी शुरू हो गयी है। नेताजी के बयानों से साफ पता चलता है कि वे सब कितने पैंतरेबाज हैं। सियासी पंडितों की मानें तो बिहार के इस राजनीतिक मंच पर नेताओं के सियासी पैंतरे, धमकियां और गठबंधन की रस्साकशी का ‘अजब ड्रामा’ चल रहा है। एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच मुख्य जंग तो है ही, लेकिन इस जंग के असली रंग छोटे दल वाले ही जमा रहे हैं। चिराग पासवान, जीतन राम मांझी, मुकेश सहनी, उपेंद्र कुशवाहा, असदुद्दीन ओवैसी आदि ऐसे खिलाड़ी हैं, जो अपने जातिगत वोट बैंक के दम पर बड़े दलों को नाकों चने चबवा रहे हैं। सभी दलों को ज्यादा से ज्यादा सीटें चाहिए। इसी के लिए वे सब अभी से पैंतरेबाजी दिखा रहे हैं। खास बात कि इस सियासी पैंतरे में बड़े दल भी शामिल हैं, लेकिन वे संयम और सधी चाल से आगे बढ़ रहे हैं। इसमें सबसे आगे कांग्रेस है। बाकी भाजपा, जदयू, राजद समेत तीनों वाम दल भी अपनी-अपनी रणनीतियों से आगे बढ़ रहे हैं। सियासी पंडितों की मानें तो राजनीति के इस हमाम में सब नंगे हैं। सबके मन में यही है कि सीटें दो, वरना खेलबे बिगाड़ देंगे…।

यह तो जगजाहिर है कि बिहार की सियासत में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक रहे हैं। चिराग का पासवान वोट, जीतनराम मांझी का मुसहर समुदाय, मुकेश सहनी का मल्लाह वोट बैंक, कुशवाहा का कोइरी समुदाय, ओवैसी का मुस्लिम वोट- ये सभी छोटे दल अपने-अपने जातीय आधार को हथियार बनाकर अपने-अपने गठबंधनों पर दबाव बना रहे हैं। एनडीए और इंडिया गठबंधन के लिए चुनौती है कि वे इन छोटे दलों को संतुष्ट करें, क्योंकि एक गलत चाल पूरे समीकरण को बिगाड़ सकती है। सियासी चर्चा के अनुसार, एनडीए में बीजेपी और जदयू 102-102 सीटों पर बराबर बंटवारा कर सकते हैं, जबकि चिराग को 22-23, मांझी को 10-12 और कुशवाहा को 7-8 सीटें मिल सकती हैं। लेकिन चिराग की लोकसभा सीट के अनुसार 40 और मांझी की 30 सीटों की मांग ने एनडीए के भीतर खींचतान बढ़ा दी। हालांकि, मांझी अब 30 से 15 सीटों पर आ गए हैं।


कमोबेश महागठबंधन में भी यही स्थिति है। सहनी की 60 सीटों की मांग ने राजद के लिए मुश्किल खड़ी कर रही है। कांग्रेस भी 2020 के चुनाव की तरह 70 से कम सीटों पर समझौता करना नहीं चाह रही है। असदुद्दीन ओवैसी भी 30 सीटें मांगकर अपना ‘पत्ता’ चला तो था, परंतु राजद ने कोई भाव ही नहीं दिया। हाँ, झारखंड मुक्ति मोर्चा और रालोजपा यानी पारस गुट को कुछ सीटों का फायदा हो जाएगा। वामदल की तीनों पार्टियों ने मिलकर 81 सीटों पर दावा ठोका है। इसमें सीपीएम 12, सीपीआई 24 तथा सीपीआई माले ने 45 सीटें मांगी है। बहरहाल, बिहार का सियासी रंगमंच लगभग तैयार है और ये छोटे राजनीतिक दल अपने जातिगत वोट बैंकों के दम पर बड़े दलों को नचाने की कोशिश में जुट गए हैं। सीट बंटवारे का सस्पेंस अभी भी बरकरार है, लेकिन धमकियों का दौर जारी है। यह दौर तब तक चलेगा, जब तक गठबंधन अपने मोहरे सेट नहीं कर लेते। बिहार के मतदाता इस सियासी तमाशे को देख रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या ये छोटे राजनीतिक दल गठबंधनों को मजबूर करेंगे, या फिर आपसी खींचतान में खुद बिखर जाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा…। हाँ, इन सबके बीच नए सियासी घटनाक्रम में उपेंद्र कुशवाहा को हराने वाले पवन सिंह अब पूरी तरह से भाजपा के साथ हो गए हैं और उनसे माफी मांग लिए हैं।
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पासवान वोटों का पासा : लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के सुप्रीमो चिराग पासवान खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान कहते हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में इनकी पार्टी के सभी सांसद जीत गए। इसके बाद से इनका कद बिहार की सियासत में काफी बढ़ गया है। लेकिन आपको याद होगा कि इनके ‘पैंतरे’ की वजह से ही 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू को भारी नुकसान हुआ था। नीतीश कुमार की पार्टी जदयू बिहार विधानसभा में 43 सीट लाकर तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी थी। एक बार फिर चिराग उसी हथकंडे को अपनाने में जुट गए हैं। उनकी पैंतरेबाजी शुरू हो गयी। उन्होंने एनडीए में अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए 40-50 सीटों का दावा ठोका है। इसी के लिए वे लगातार प्रमंडलीय स्तर पर नवसंकल्प महासभा का आयोजन कर रहा है। दरअसल, चिराग का आधार वोट पासवान (दुसाध) समाज है, जो बिहार की आबादी का लगभग 5.31% है। यह जाति पूरे बिहार में फैली है, लेकिन हाजीपुर, वैशाली और समस्तीपुर जैसे क्षेत्रों में इनका प्रभाव खासा है। यह भी सच है कि दुसाध समाज का वोट उनके पिता रामविलास पासवान के समय से ही पार्टी के साथ है। वह वोट बैंक अब चिराग पासवान के साथ है। चिराग की रणनीति है कि वे इस वोट बैंक की बदौलत अपनी पार्टी को अधिक से अधिक सीटें दिलाएं। अगर 2020 की तरह कुछ हुआ तो फिर जदयू को नए सिरे से सोचना होगा…।
मुसहर समुदाय का मसीहा : हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) पार्टी के जीतन राम मांझी भले ही उम्र में बड़े हों, लेकिन सियासी चालबाजी में किसी से कम नहीं। 2020 में उनकी पार्टी ने 7 में से 4 सीटें जीती थीं। उनकी ताकत भी उनके जातीय मतदाता हैं। मांझी मुसहर समुदाय से आते हैं। यह समुदाय अनुसूचित जातियों में सबसे पिछड़ा माना जाता है। उन्होंने भी कई दफे मीडिया के सामने कह दिया है कि हमारी पार्टी को कोई कम नहीं आंकें। इससे एनडीए को ही नुकसान होगा। इतना ही नहीं, जीतनराम मांझी के पुत्र संतोष मांझी अभी बिहार सरकार में मंत्री हैं। उन्होंने भी पिछले दिनों कहा था कि जरूरत पड़ी तो उनकी पार्टी भी बिहार की सभी 243 सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारेगी। सियासी पंडित इसके पीछे ‘सियासी पैंतरा’ ही मानते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में मुसहर समुदाय की आबादी लगभग 2-3% है। यह आबादी गया, औरंगाबाद, कैमूर आदि जिलों में ज्यादा है। इस समुदाय पर मांझी का जबरदस्त प्रभाव है। वे सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को उठाकर इस समुदाय को एकजुट करते हैं। सियासी पंडितों की मानें तो जातीय कद के आधार पर ही जीतनराम मांझी केंद्र में मंत्री बने हुए हैं। एनडीए में ताकत बरकरार रहे, इसके लिए वे केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान पर भी समय-समय पर तंज कस रहे हैं। कहा जाता है कि यदि एनडीए में बात नहीं बनी तो उन्हें महागठबंधन की राजनीति करने में भी देर नहीं लगेगी। उनका पिछला रिकॉर्ड ऐसा ही रहा है।
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निषादों का नया नायक : अब बात करते हैं पूर्व मंत्री मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी की। विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी वर्तमान में इंडिया गठबंधन के साथ हैं। सियासी पंडितों की मानें तो मुकेश सहनी भी अपने चुनावी फायदे की जुगाड़ में जुट गए हैं। ये भी मैक्सिमम सीटें लेना चाहते हैं। उन्होंने कई बार मीडिया के सामने कहा है कि उनकी पार्टी को 60 सीटें चाहिए। हालांकि, उन्हें भी पता है कि इतनी सीटें नहीं मिलने वाली हैं। वहां केवल वीआईपी पार्टी नहीं है। उसके साथ राजद, कांग्रेस और तीन-तीन वाम दलों के अलावा रालोजपा और झामुमो भी शामिल हो गए हैं। खास बात कि वे उपमुख्यमंत्री का पद भी मांग रहे हैं। वे खुद दावा करते हैं कि उनकी पार्टी 150 से ज्यादा सीटों को अपने वोटरों के जरिए रिजल्ट को प्रभावित कर सकते हैं। मुकेश सहनी मछुआरा समाज से आते हैं। इस समाज पर उनका जबरदस्त प्रभाव है। वे कब किस ओर मुड़ जाए, कहा नहीं जा सकता है। निषाद समाज बिहार की आबादी का लगभग 10% है। गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जैसे जिलों में इसका ठीक-ठाक प्रभाव है। सहनी ने इस समाज को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने की मांग को अपना सियासी हथियार बनाया है। इसी वोट बैंक के दम पर वे गठबंधन के बाकी घटक दल पर प्रेशर बना रहे हैं। वे किस गठबंधन में कब तक रहेंगे, यह भी नहीं कहा जा सकता है।
कुशवाहा वोटों का कितना दम : अब बात करते हैं राष्ट्रीय लोक मोर्चा सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा की। ये अब तक कुशवाहा समाज के सर्वमान्य नेता नहीं हो सके हैं। इनके इस ‘इंटरनल दुख’ को सियासी पंडित भी मानते हैं। दरअसल, बिहार में कोईरी समाज की आबादी 4.21% है। इस समाज पर कई नेता अपने-अपने हक जताते रहे हैं। एक समय था, जब जगदेव प्रसाद की इस समाज पर जबरदस्त पकड़ थी। उनकी हत्या के बाद उनके बेटे नागमणि ने अपनी पकड़ बनाने की कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए और अभी वे भाजपा के साथ हैं। बाद के दिनों में उपेंद्र कुशवाहा ने खुद को स्थापित किया, लेकिन नीतीश कुमार के सामने आने के बाद लवकुश समीकरण उनके साथ हो गया। इसके बाद कुशवाहा पाला बदलते रहे, जिससे उनकी विश्वसनीयता ही खतरे में पड़ गयी। वैसे तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री रहते दो बार महागठबंधन में शामिल हुए, लेकिन ‘चाणक्य वाली’ नीति से उनकी ‘सियासी सेहत’ पर कोई असर नहीं पड़ा। पूर्व मंत्री शकुनी चौधरी का भी एक समय काफी वर्चस्व रहा है। खासकर पूर्व बिहार में आज भी वे कोईरी समाज के पितामह कहे जाते हैं। लेकिन अब इस समाज पर पूरे बिहार में सबसे अधिक पकड़ उनके पुत्र सम्राट चौधरी की हो गयी है। भाजपा ने इसे गंभीरता से लिया और उन्हें कई बड़े पदों से नवाजते हुए उपमुख्यमंत्री की कुर्सी प्रदान की। जेड प्लस सुरक्षा दी है। बेशक वे आज बिहार के सीएम फेस हैं। ऐसे में अपने कद को बढ़ाने के लिए उपेंद्र कुशवाहा ने भी धमकी दी है कि अगर एनडीए ने उनकी हिस्सेदारी कम की, तो वे अपने रास्ते पर चल सकते हैं। पूरे बिहार में लड़ने की भी बात कही है। सियासी पंडितों की मानें तो वे भी 15-20 सीटें चाह रहे हैं, लेकिन 10-12 भी मिल जाए तो गनीमत है।
ओवैसी को भी चाहिए हिस्सा : असदुद्दीन ओवैसी। AIMIM के सुप्रीमो। बिहार पॉलिटिक्स का स्वाद इन्हें भी मिल गया है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में इनकी पार्टी को सीमांचल में जबरदस्त सफलता मिली थी। इनकी 5 सीटों पर मिली सफलता और आधा दर्जन से अधिक सीटों पर ‘उलटफेर’ ने महागठबंधन सरकार की गणित को ही खराब कर दिया, जिससे तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए। यह अलग बात है कि बाद में ओवैसी के 5 में से 4 विधायकों ने राजद का दामन थाम लिया था। इस बार ओवैसी के जरिये हो रहे ‘वोट लीकेज’ को रोकने पर भी तेजस्वी का ध्यान है। अब उन्हें इसमें कितनी सफलता मिलती है, यह तो आनेवाले समय में पता चलेगा, लेकिन इसे भांपते हुए ओवैसी ने भी अपना सियासी पैंतरा चला। लेकिन इंडिया गठबंधन ने भाजपा की बी टीम का आरोप लगाकर किनारा कर लिया। इसके बाद नया पैंतरा अपनाते हुए पार्टी के लोगों ने लालू यादव के आवास पर प्रदर्शन भी किया कि उसे इंडिया गठबंधन में रखा जाए। दरअसल, बिहार में यादव के बाद मुस्लिमों की बड़ी आबादी है और ओवैसी इसका लाभ लेना चाहते हैं। सियासी पंडितों की मानें तो मुस्लिमों का भी ओवैसी पर प्रेशर है कि अलग लड़कर वोट को बर्बाद नहीं कीजिए या कोई ऐसा काम नहीं कीजिये, जिससे एनडीए को लाभ मिले।