Rajesh Thakur / Patna : बिहार की राजधानी पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में 5 दिसंबर से पुस्तक मेला चल रहा है। इसका समापन 16 दिसंबर को होगा। यह 41वां पुस्तक मेला है। मेला भ्रमण के दौरान 10 दिसंबर (बुधवार) को विभिन्न बुक स्टॉल पर किताबों का अवलोकन कर रहा था। प्रभात प्रकाशन के बुक स्टॉल पर साहित्यप्रेमी के रूप में विधान परिषद के अधिकारी भैरव लाल दास मिले। बातचीत के दौरान ही पता चला कि वे अब तक 17 पुस्तक लिख चुके हैं। इनमें कई पुस्तकें काफी चर्चित और डिमांड में रही हैं। अमेजॉन और फ्लिपकार्ट पर भी इनकी पुस्तकों की खूब डिमांड है। इनकी लिखित पुस्तकों में बटुकेश्वर दत्त, गदर आंदोलन का इतिहास, कैथी लिपि का इतिहास, राजकुमार शुक्ल की डायरी, चंपारण में गांधी की सृजन यात्रा आदि को पुस्तक प्रेमियों ने हाथोंहाथ लिया है। इन्होंने प्रो. नित्यानंद लाल दास के साथ मिलकर ‘भारत के संविधान’ का मैथिली में अनुवाद भी किया है।


पीएफ से पैसा निकाल पहुंचे अमेरिका : दरअसल पुस्तक मेला के दौरान ही भैरव लाल दास से हुई मुलाकात के दौरान इनकी किताबों पर चर्चा हुई। इन्होंने बताया कि प्रभात प्रकाशन के बुक स्टॉल पर फिलहाल दो किताबें ‘बटुकेश्वर दत्त’ और ‘गदर आंदोलन का इतिहास’ बिक भी रही है। बातचीत में इन्होंने बताया कि गदर आंदोलन के इतिहास पर लिखने के दौरान अपने पीएफ फंड से पैसे निकालकर अमेरिका पहुंच गये थे। वे बताते हैं कि पुस्तक लेखन में वास्तविकता का अहसास पाठकों को तभी मिलेगा, जब उसमें हकीकत की मिठास रहे। फिर रिसर्च बुक रहे तो आपको तथ्यों को जानने के लिए उन स्थलों पर आपको पहुंचना ही होगा। जब तक उल्लेखित स्थलों पर नहीं पहुंचेंगे और वहां के लोगों से बात नहीं करेंगे तो आप पुस्तक में ‘आत्मा’ नहीं डाल सकते हैं। ऐसा ही कुछ हुआ था ‘गदर आंदोलन का इतिहास’ लिखने के दौरान। वे ये भी बताते हैं कि लोकप्रिय चरित्रों, चर्चित शख्सियतों पर तो सब लिखते हैं, लेकिन ‘अनसंग हीरोज’ पर लिखने का एक अलग आनंद है। इससे लोगों गुमनाम सितारों की भी जानकारी मिलती है।
कहानी अनसंग हीरो करतार सिंह सराभा की : पुस्तक गदर आंदोलन का इतिहास में ऐसे ही अनसंग हीरो करतार सिंह सराभा की कहानी है। कैसे वे सात समंदर पार अमेरिका में बैठकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अपना अहम योगदान दिया। दरअसल, लेखक भैरव लाल दास बटुकेश्वर दत्त पर किताब लिख रहे थे। उसी दौरान क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह के एक प्रसंग में उन्हें करतार सिंह सराभा के बारे में जानकारी मिली। उनको जब पता चला कि आजादी के नायक रहे भगत सिंह अपनी शर्ट के पॉकेट में करतार सिंह सराभा की फोटो लेकर चलते थे तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। तभी उनके प्रति जानने की जिज्ञासा मन में जगी। उन्हें लगा कि भगत सिंह पर हजारों-लाखों लोग लिख रहे हैं, लेकिन इस गुमनाम सितारे पर नहीं लिखना इनके साथ अन्याय होगा। फिर क्या, इनके लिए लेखक ने अपनी लेखनी उठायी तो गदर आंदोलन के बारे में भी जानकारी मिली। इस तरह पुस्तक ‘गदर आंदोलन का इतिहास’ सबके सामने आया। 2016 में आयी इस पुस्तक को डिमांड के अनुसार लगातार प्रकाशित कर रहा है।

कूट-कूट कर भरा था देशभक्ति का जज्बा : भैरव लाल दास बताते हैं कि करतार सिंह भारत के ओडिशा (तब उड़ीसा) से जुड़े थे। वे ओडिशा में ही पढ़ाई करते थे। वे आगे केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए। इसके लिए उन्होंने University of California Berkeley में एडमिशन लिया। पढ़ाई के दौरान ही उनमें देशप्रेम की भावना जगी। अमेरिका में रह रहे अन्य भारतियों से संपर्क साधा। फिर 1915 में लाला हरदयाल सिंह, करतार सिंह सराभा व अन्य भारतीयों ने मिलकर गदर पार्टी की स्थापना की और वे लोग जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। इस दौरान अन्य लोगों में देशप्रेम की जज्बा जगाने के लिए ‘गदर’ नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका निकाली। यह पत्रिका बाद में कई भाषाओं में प्रकाशित हुई। इतना ही नहीं, 15 जनवरी 1934 को भारत में आए भयंकर भूकंप के पीड़ितों को भी गदर पार्टी की ओर से काफी मदद की गयी थी। उस भूकंप में सबसे अधिक तबाही बिहार में हुई थी। भूकंप में पटना के गुरुद्वारा को भी काफी क्षति हुई थी। उसके पुनरुत्थान में गदर पार्टी ने काफी सहयोग किया था। तब जहाज के मालिक बाबा गुरुदित्त सिंह ने भी इसमें काफी मदद की थी।

लेखक भैरव लाल दास ने यह भी बताया : लेखक बताते हैं कि अमेरिका पहुंचने पर जो जानकारी मिली, उससे लगा कि करतार सिंह सराभा के जरिये गदर आंदोलन पर भी लिखा जाए। गदर पत्रिका जहां छपती थी, वह मशीन आज भी स्टॉकटन गुरुद्वारा में सुरक्षित है। इसके अलावा वे ज्वाला सिंह टठिया के फॉर्म हॉउस भी गये। हालांकि, हम अमेरिका 2013 में पहुंचे थे, तब काफी कुछ बदल चुका था, लेकिन आपके मन में कुछ करने का जज्बा हो तो आपके सारे कार्य होते चले जाते हैं। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। वरना कहाँ अमेरिका और कहाँ बिहार…। और यह भी मेरे लिए सुखद संयोग ही था कि वहां हर साल सितंबर में ‘गदर मेला’ लगता है और उसी समय हम अमेरिका गए थे। सो, मेला देखने का भी हमें सौभाग्य मिल गया। इस दौरान हमें भोपाल के फ्रीडम फाइटर बरकतुल्ला की कब्र पर फूल चढ़ाने का भी मौका मिला। उनका निधन अमेरिका में हुआ था और यहीं उन्हें दफनाया गया था। बहरहाल, किताब लिखने में कोई परेशानी नहीं हुई। हां, इसे लिखने में दो साल लगे। प्रकाशन में भी किसी प्रकार की प्रॉब्लम नहीं हुई। यह भी सुखद है कि 500 पेज की इस किताब को लोग काफी सराह रहे हैं और प्रभात प्रकाशन के अनुसार आज भी यह पुस्तक डिमांड में है। बता दें कि 1917 में करतार सिंह सराभा को फांसी की सजा हुई थी।




