PATNA : भारत की आत्मा गांवों में बसती है। महात्मा गांधी की यह बात बचपन से ही लोग सुनते आ रहे हैं। लेकिन, इसके उलट अब गांवों में ही शहर बसता जा रहा है। कुआं, पोखर खत्म होते जा रहे हैं। ताल-तलैया भरते जा रहे हैं। पेड़-पौधे कटते जा रहे हैं। कंक्रीट के पहाड़ बढ़ते जा रहे हैं। इस साल बेतहाशा पड़ रही गर्मी इसके खतरनाक संकेत हैं। इतना ही नहीं, गांवों की कई ऐसी चीजें भी विलुप्त होती जा रही हैं, जिसे संजोने की जरूरत है। वरना यही कहते फिरेंगे कि वो भी क्या दिन थे। ऐसी ही यादों को यहां वरीय पत्रकार रजिया अंसारी ने मुखिया जी डाॅट काॅम के विशेष रूप से कलमबद्ध किया है।
रजिया अंसारी लिखती हैं – गांव के लहलहाते हरे-भरे खेत, खेतों में सरसों के पीले-पीले फूल, कुएं पर पानी भरतीं गांव की औरतें, जंगल से लकड़ियों का बोझा सिर पर ढोतीं महिलाएं, गांव की पगडंडियों पर बैलगाड़ी की कतारें, भूंजा भूंजतीं महरिन, ये गांव की कुछ ऐसी चीजें हैं जिनका ख्याल आते ही मन रोमांचित हो जाता है। खासकर ये यादें उनके लिए और खास हो जाती हैं जिनका संबंध गांव से है या जिनका बचपन गांव में बीता है। मेरा बचपन भी अधिकतर गांवों में ही बीता है। शहर आ जाने के बाद जब भी छुट्टियां होती, हम गांव ही जाते। गांव से इतना प्यार है कि अब भी, जबकि अब वहां हमारे परिवार का कोई नहीं रहता है, इसके बाद भी मौका मिलते ही हम वहां पहुंच जाते हैं। गांव में दादा के जमाने का टूटा-फूटा घर है। जहां हम एक-दो दिन रहकर अपने बचपन की यादें ताजा करते हैं। खेत-खलिहानों में घूमते हैं, बाग-बगीचों की सैर करते हैं और शहर की भीड-़भाड़ से दूर गांवों में जाकर सुकून ढूंढ़ते हैं।
लेकिन अब गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया है। कुछ बदलाव तो अच्छे हुए हैं, जिनसे गांव वालों को सहूलियत हुई है। लेकिन कुछ बदलाव ऐसे हुए हैं जिनसे गांवों की आत्मा खो रही है। हम जैसे लोग जो गांव जाकर गांव ढूंढ़ते हैं, उनके लिए ये बदलाव अच्छा नहीं है। हम अपने गांव की बात करते हैं, जो बचपन से हम देखें हैं और अब उसके बदलाव को भी देख रहे हैं।
यूपी के महाराजगंज जिले में फरेंदा से लगभग 12 किलोमीटर दूर 20 से 25 घर का एक छोटा-सा गांव छविलालपुर है। पहले यहां 10-12 घर ही थे। अब परिवार बढ़ने से घर भी बढ़ गये हैं. हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं इस गांव में। पहले सभी घर खपरैल के थे। अब नए घर जो बने हैं, वह पक्के के हैं और जो पुराने खपरैल के थे, वो भी टूटकर पक्के बन रहे हैं। गांव के लोग बहुत अमीर नहीं हैं और न ही शिक्षित। घर के जो लड़के बड़े हुए, वह रोजी-रोटी के लिए दूसरे बड़े शहर या खेत बेचकर विदेश निकल गए। गांव के पुराने लोग अब भी खेती और मजदूरी ही करते हैं।
अब कुछ लोग शिक्षा की अहमियत समझ रहे हैं तो बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं। सरकारी स्कूल में तो ज्यादातर गरीब घर के बच्चे ही जाते हैं। गांव से कुछ दूर इंग्लिश मीडियम के भी स्कूल खुले हैं, लेकिन वहां इंग्लिश नाम मात्र के ही हैं। यह देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ हमें कि जैसे शहरों में मिडिल क्लास के लोग अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में भेजने पर गर्व महसूस करते हैं और पैसा न होने पर भी भेजते हैं, वैसे ही गांव में भी लोग इंग्लिश की अहमियत समझ रहे हैं और पैसा न होने पर भी इंग्लिश मीडियम में पढ़ाना चाह रहे हैं। हालांकि फीस बहुत ही कम थी 150 रुपये और जो बहुत गरीब मजबूर हैं उनकी फीस थोड़ी कम करके 100 रुपये कर दी गई है। गांव के पूर्व प्रधान के स्कूल का हमने मुआयना भी किया।
शिक्षा पर लिखने के लिए एक अलग आर्टिकल लिखना पड़ेगा, इसीलिए अभी बस इतना ही। हम जब भी गांव जाते हैं तो उन चीजों को ढूंढ़ते हैं, जो अब खो गई है। मेरे गांव में एक कुआं था, जिसमें अब कूड़ा फेंककर पाट दिया गया है। पहले उसमें से ताजा मीठा पानी निकलता था। कुछ लोग घर में शौचालय बनवा लिये हैं। कुछ लोग के सरकारी शौचालय बने हैं। कुछ दिन पहले गांव गये थे तो उन सरकारी शौचालय में लकड़ी और कंडा (गोबर के उपले) रखा देखे थे, लेकिन इस बार वह शौचालय का इस्तेमाल हो रहा है। फिर भी अभी बहुत सारे लोग सुबह-सुबह शौच के लिए खेतों में दिख जाते हैं।
मेरे घर में जाता (आटा पीसने की चक्की) अब भी रखी है, जो अब एंटीक बन चुकी है। खेती में भी नए-नए तकनीक आ गये हैं। अधिकतर काम मशीन से होता है। पहले खेतों में पानी चलाने के लिए पम्पिंग मशीन रहती थी और खेतों में पानी डालने के लिए पतली-पतली नालियां बनाई जाती थीं, जिनसे खेतों में पानी पहुंचता था। उन नालियों को बिहार में क्यारी कहा जाता है। अब यह काम रबर की पाइप से होता है। गर्मी के दिनों में जब पंपिग मशीन चलती थी तो हम लोग खूब नहाते थे खेतों में जाकर, लेकिन यह सब अब यादों में ही रह गए हैं।
खलिहानों में रखे पुआल हमें सबसे ज्यादा आकर्षित करते थे, क्योंकि उस पर चढ़कर हमलोग खूब खेलते थे। जबतक पूरे शरीर में खुजली न हो जाये, तब तक घर नहीं जाते थे अथवा घर के लोग डांटने नहीं पहुंच जाते थे। अब चूंकि धान-गेंहू की कटाई मशीनों से होती है तो पुआल बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। इसके बाद नंबर आता है बैलगाड़ी का। बचपन में खूब सवारी किये हैं बैलगाड़ी की। तब खेतों में हल चलता था और बैल से खेतों में बहुत काम लिया जाता था। इस बार गांव गए तो महज एक बैलगाड़ी दिखी। अम्मा ने बताया कि पूरे मौजा में यही एक बैलगाड़ी बची है। बैलगाड़ी पर समान रखा हुआ था और उसपर बैठने की मेरी तमन्ना अधूरी रह गई।
ठंड में गांव जब जाते थे तो गन्ने के कोल्हू पर जरुर जाते, जहां भेली (गुड़) बनता था. और हमलोग गुड़ बनने का पूरा प्रोसेस देखकर और फिर गर्म’गर्म गुड़ खाकर ही वहां से आते थे। अब गांव में कोल्हू भी नहीं के बराबर बचे हैं। इसके बाद नंबर आता है भूंजा भूंजने वाले भार का। जो औरतें भूंजा भूंजती हंै उसे महरिन कहते हैं, लेकिन हमलोग ठेठ देहाती में उसे भुजइन कहते थे। बिहार में कंसार कहा जाता है। कच्चा चना, चावल, मक्का आदि ले जाकर उसका भूंजा भुंजाते थे। घर पर लहसुन-मिर्चा की चटनी के साथ भूंजा का खूब लुफ्त उठाते थे। हमें भुजइन के भार जाना बहुत अच्छा लगता था। कई औरतें, लड़कियां वहां आतीं और हमलोग इत्मीनान से बैठकर देखते। वहां पर लोग गपबाजी भी खूब करते। वही गपबाजी अब शहर में गॉसिप बन गयी है। उस गाॅसिप में पूरे गांव के घर की बात पता चल जाती थी। अब तो कंसार भी लगभग खत्म हो गया है।
खास बदलाव में अब गांवों में लोग आपस में बात करने के बजाय मोबाइल में उलझे रहते हैं। दरअसल, अब गांवों में भी मोबाइल युग आ गया है। लोग अब आपस में बैठकर बात नहीं करते हैं। ज्यादातर फोन पर फिल्म देखते या गाना सुनने में लगे रहते हैं। पहले ठंड में लोग आग जलाकर इकट्ठे बैठकर बातें करते थे। हमारे दुआरे पर बड़ा-सा कौड़ा (आग) जलता था। एक साथ 10-12 लोग बैठ कर आग तापते थे। हमलोग खेत से आलू निकाल कर पहले ही रख लेते और जब कौड़ा जलता तो उसमें पकाकर खाते। उस सोंधे-सोंधे पके आलू का स्वाद आज भी याद आता है।
गांव से जुड़ीं मेरी बहुत-सी यादें हैं। सब लिखना संभव भी नहीं है, लेकिन अब यह बस यादें ही रह जाएंगी। पता नहीं अगली बार जाने पर फिर क्या विलुप्त हो जाये। हर बार गांव में कुछ-कुछ बदलाव होते रहते हैं, लेकिन हर बार गांव जाकर हम अपने बचपन का गांव ही ढूढ़ते हैं। खास बात कि यह कहानी केवल यूपी की नहीं है। बिहार हो या मध्य प्रदेश अथवा दक्षिण भारत के गांव, सब जगह शहरी हवा ने माहौल बदल दिया है। और कहते फिरते हैं कि वो भी क्या दिन थे…