PATNA (SMR) : यूपी चुनाव की रणभेरी बजने के बाद राजनीतिक शतरंज पर तमाम सियासी दल अपनी-अपनी चाल अब तेजी से चलने लगे हैं। कई सियासी समीकरण बन भी रहे हैं और बिगड़ भी रहे हैं। देश के युवा पॉलिटिकल एनालिस्ट विवेकानंद सिंह यूपी चुनाव पर काफी बारीकी से नजर बनाए हुए हैं। यह आलेख उनके फेसबुक वाल से लिया गया है। इसमें उनके निजी विचार हैं।
AIMIM के असदुद्दीन ओवैसी साहब दिलचस्प व्यक्ति हैं। लगता है कि भाग्य पर वह भी भरोसा करने लगे हैं। बिहार में जहां उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा को अपने गठबंधन का सीएम उम्मीदवार बनाया था, वहीं उत्तर प्रदेश में बाबू सिंह कुशवाहा को भागीदारी मोर्चे का सीएम उम्मीदवार बनाया है। यहां दो ही बात हो सकती है, या तो ओवैसी साहब को बिहार/यूपी में राजनीति के लिए कुशवाहा समाज के नेता भा गये हैं, या फिर ‘लालू यादव/मुलायम सिंह यादव’ की तरह ‘उपेंद्र कुशवाहा/बाबू सिंह कुशवाहा’ अपनी राजनीति को मजबूती देने के लिए मुस्लिम समाज को अपने साथ करने के लिए ओवैसी को साथ ले रहे थे/हैं।
बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी 2020 विधानसभा चुनाव में तो लगभग 1.77 प्रतिशत वोट पाकर शून्य पर रह गयी और अंततोगत्वा जेडीयू में विलीन हो गयी, पर ओवैसी साहब की पार्टी ने 1.24 प्रतिशत वोट के साथ बिहार में 5 सीटें भी जीत लीं। यूपी में भी ओवैसी साहब को कुछ ऐसे ही प्रदर्शन की उम्मीद होगी। बिहार में ओवैसी साहब का ‘पंजा’ जहां सीमांचल में चला, वहीं उत्तर प्रदेश में उनकी उम्मीदें पश्चिमांचल पर टिकी हैं। बिहार के इस गठबंधन में शामिल बसपा को भी एक सीट पर जीत मिली थी। हालांकि, बसपा के विधायक भी बाद में जेडीयू के हो गये। कुल मिलाकर ओवैसी, कुशवाहा, बसपा के पूरे फ्रंट को बिहार में 5 प्रतिशत के आसपास वोट मिले थे।
ऐसे में सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में बाबू सिंह कुशवाहा के भागीदारी मोर्चे का क्या होगा? उनके मोर्चे में बिहार की तरह ही ओवैसी साहब, वामन मेश्राम व कुछ अन्य दल शामिल हैं। क्या उनकी गति भी उपेंद्र कुशवाहा के ही जैसी होगी या फिर उनके दल जन अधिकार पार्टी का यूपी में खाता खुलेगा? क्या बिहार की तरह ओवैसी साहब का कुशवाहा प्रयोग यूपी में भी सफल होगा? अगर वहां भी बिहार की तरह भागीदारी मोर्चा कुछ प्रतिशत वोट पाती हैं, तो ‘भाजपा/सपा’ किस गठबंधन का नुकसान ज्यादा होगा?
जातीय नजरिये से देखें, तो यूपी-बिहार दोनों प्रदेशों में कुशवाहा समाज (बिहार में कोईरी व दांगी तथा यूपी में मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा) राजनीतिक रूप से उपेक्षित समाज रहा है।
इस समाज के विधायक/सांसद हर दल में याचक की भूमिका में ही रहे हैं। नेता वाली भूमिका के लिए इस समाज के राजनीतिज्ञों का संघर्ष जारी है। यही वजह है कि हर दल में कुछ न कुछ इस समाज के विधायक/सांसद जरूर मौजूद हैं। चुनावी काल में अलग-अलग दल इस समाज का वोट पाने के लिए इन सभी विधायक/सांसद को तरजीह भी देते हैं, लेकिन चुनाव के बाद इस समाज के नेता (विधायक/सांसद) राम भरोसे हिन्दू होटल चलाते नजर आते हैं। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा का पार्टी बनाकर राजनीति करने का प्रयोग असफल जरूर रहा, लेकिन कुशवाहा समाज की दबी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को सभी पार्टियों ने नोटिस जरूर किया है। उत्तर प्रदेश में कांशीराम के शिष्य बाबू सिंह कुशवाहा, बहन मायावती की सरकार में मंत्री रहे। वहां एक घोटाले का आरोप उन पर लगा और वे जेल भी गये। उन्होंने जेल से बाहर निकलकर कुछ देर के लिए भाजपा में जगह तलाशी भी, लेकिन अंत में उन्होंने अपनी एक पार्टी (जन अधिकार पार्टी) बनायी। पार्टी का स्लोगन मान्यवर कांशीराम के नारे को चुना- ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’। इस यूपी विधानसभा चुनाव पर बाबू सिंह कुशवाहा की पार्टी का भी भविष्य टिका है। उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें उनके भागीदारी मोर्चे को कितना नोटिस करती है, इसका पता 10 मार्च को चल ही जायेगा।