भारत-रूस संबंध : वैश्विक शक्ति संतुलन की अनिवार्य धुरी

Mukhiyajee Desk / Patna : रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का दो दिवसीय भारत दौरा पूरा हो गया है। वह 23वें भारत-रूस समिट के लिए भारत आए थे। इस दौरान दोनों देशों के बीच 19 समझौते हुए। उनके सम्मान में राष्ट्रपति भवन में भव्य डिनर का आयोजन किया गया। इस डिनर में शिरकत करने के बाद वह सीधे रूस के लिए रवाना हो गए। इससे पहले पीएम नरेंद्र मोदी और पुतिन के बीच हुई मीटिंग में ट्रेड, डिफेंस और एनर्जी से जुड़े कई समझौतों पर साइन हुए, जिसका ऐलान दोनों नेता जॉइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस में किया। 2022 में रूस-यूक्रेन जंग शुरू होने के बाद से यह पुतिन का पहला भारत दौरा था। इधर, सामाजिक कार्यों से जुड़े पॉलिटिकल एक्सपर्ट अमरनाथ बता रहे हैं कि वैश्विक शक्ति संतुलन के लिए भारत और रूस के बीच बेहतर संबंध होना कितना जरूरी है। यहाँ उनका आलेख अक्षरशः प्रकाशित किया जा रहा है। इसमें उनके निजी विचार हैं।

हिंद-प्रशांत आज महाशक्तियों का अखाड़ा बन चुका है। अमेरिका अपने सैन्य गठबंधनों, नौसेना उपस्थिति और ‘नियम आधारित व्यवस्था’ के नाम पर हस्तक्षेपवाद की नयी परिभाषा लिख रहा है। चीन अपनी विस्तारवादी परियोजनाओं के साथ समुद्री गलियारों पर दबदबा चाहता है। इन दो चरम शक्तियों के बीच भारत एक ऐसे क्षण में खड़ा है, जहां उसकी रणनीतिक स्वायत्तता ही उसकी सबसे बड़ी पूँजी है। और यह हकीकत है कि इस स्वायत्तता को संरक्षित रखने में रूस की भूमिका अमेरिका से कहीं अधिक सार्थक, स्थिर और दीर्घकालिक रही है। लेकिन इससे पहले कि वर्तमान भारत-रूस समीकरण की मजबूती को रेखांकित किया जाए, यह याद रखना आवश्यक है कि मोदी सरकार ने अपने शुरुआती वर्षों में कुछ ऐसी रणनीतिक भूलें की, जिन्होंने रूस को अनावश्यक रूप से असहज और सशंकित किया।

मोदी सरकार की शुरुआती विदेश-नीति त्रुटियाँ, जिन्होंने रूस के साथ रणनीतिक दूरी पैदा की

  1. अमेरिका-केंद्रित झुकाव और रूस की उपेक्षा (2014-2018) : पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी रणनीतिक ढाँचे की ओर एक तेज झुकाव दिखाया। LEMOA, COMCASA, BECA ये सभी सैन्य समझौते भारत को अमेरिकी ‘सुरक्षा-छात्र’ में ले जाने वाले कदम माने गए। इन समझौतों ने रूस में यह संदेश भेजा कि भारत धीरे-धीरे अमेरिकी सुरक्षा व्यवस्था में समाहित हो रहा है। यह वह समय था, जब रूस दक्षिण एशिया में चीन, पाकिस्तान धुरी से पहले ही चिंतित था और भारत का अमेरिकी निकटता बढ़ाना उसे और असहज कर गया।
  2. QUAD की आक्रामकता और रूस की सीधी आपत्ति : रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव ने 2020 में खुले मंच पर कहा था- ‘QUAD का उद्देश्य एशिया को नए शीत-युद्ध ब्लॉक में बदलना है।’ भारत की QUAD के प्रति बढ़ती सक्रियता रूस के लिए यह संकेत था कि भारत एक अमेरिकी सैन्य-रणनीतिक परियोजना में शामिल हो रहा है।
  3. अमेरिका के ‘इंडो-पैसिफिक विजन’ का अनावश्यक समर्थन : अमेरिका का ‘इंडो-पैसिफिक’ पूरी तरह चीन-विरोधी और अमेरिका-प्रेरित सुरक्षा रणनीति है। भारत ने इसे 2016 के बाद से बार-बार सकारात्मक रूप से स्वीकार किया। रूस ने खुलकर इसे ‘अस्थिर करने वाली नीति’ कहा।
  4. रूस से कुछ दूरी बनाना : यह ऐसा समय था, जब चीन-पाक धुरी मजबूत हो रही थी। रूस और चीन के सामरिक संबंध मजबूत हो रहे थे। रूस पाकिस्तान को हथियार प्रणाली देने लगा। ऐसे समय में भारत का रूस से दूरी बनाना रणनीतिक भूल थी। भारत-रूस ‘मुश्किल समय की दोस्ती’ का इतिहास बताता है कि यह दूरी भारत के हित में नहीं थी।

ऐसे में अब मोड़ आया है। मौका है कि भारत अपनी रणनीतिक गलतियों को सुधारे। यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक व्यवस्था को झकझोर दिया। अमेरिका का ‘वैश्विक नेतृत्व’ अब पहले जैसा स्वीकार्य नहीं रहा। यूरोप, रूस से टकराकर ऊर्जा संकट में फँस गया और भारत समझ गया कि अमेरिकी दबाव के आगे झुकने की कीमत बहुत भारी हो सकती है। भारत ने न सिर्फ रूसी तेल खरीदना जारी रखा, बल्कि डॉलर की जगह रुपये-रूबल व्यापार, ब्रिक्स मुद्रा और रक्षा सहयोग में नए समझौते तलाशने शुरू किए। यही वह समय है, जब भारत-रूस साझेदारी नयी ऊर्जा के साथ उभर रही है।

अमेरिका की साझेदारी लोकतंत्र के नाम पर दबाव की राजनीति : अमेरिका की विदेश नीति का इतिहास सबके सामने है। इराक में ‘लोकतंत्र’ भेजा, परिवार और तेल दोनों खो दिये। अफगानिस्तान में 20 साल बाद सैनिक भागे, आतंक नहीं गया। लीबिया को बर्बाद करके छोड़ा, अब वहाँ दो सरकारें, कोई राष्ट्र नहीं। यूक्रेन को रूस के खिलाफ धकेला, विनाश यूक्रेन का हुआ, लाभ NATO का। भारत इसे समझता है कि अमेरिका अपने हितों के लिए किसी भी देश को मोहरा बनाने में हिचकता नहीं। इसी अमेरिकी मॉडल का सामना भारत ने भी किया, जैस रूस से तेल मत लो, वरना प्रतिबंध। S-400 मत खरीदो, वरना CAATSA । चीन से निपटने का अमेरिकी तरीका अपनाओ, वरना Indo-Pacific में सहयोग संकट। कश्मीर पर चुप रहो, वरना मानवाधिकार रिपोर्ट तैयार है… अरे भाई, यह कैसी मित्रता है, जिसमें हर वाक्य की शुरुआत ‘अगर नहीं…’ से होती है?

दूसरी ओर, रूस, भारत की रणनीतिक स्वायत्तता का सबसे स्थिर स्तंभ है। तथ्यों की भाषा में देखें तो रूस भारत का वह साझेदार है जिसने 1. परमाणु कार्यक्रम को निर्णायक समर्थन दिया(1971, 1998 के बाद भी)। अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए, रूस ने तकनीक और सुरक्षा दोनों प्रदान की। 2. S-400, ब्रह्मोस, चक्र पनडुब्बी, ये अद्वितीय सहयोग हैं।
अमेरिका आज तक भारत को ऐसी तकनीक का एक छोटा हिस्सा भी नहीं देता। 3. संयुक्त राष्ट्र में भारत की ढाल। कश्मीर से लेकर आतंकवाद तक रूस ने भारत के हितों की रक्षा के लिए बार-बार veto या समर्थन दिया। 4. रूस ने कभी भारत के आंतरिक मामलों पर टिप्पणी नहीं की। अमेरिका नियमित रूप से ‘मानवाधिकार’, ‘लोकतंत्र’ और ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ की रिपोर्टों के जरिये भारतीय संप्रभुता पर सवाल उठाता है। 5. 60% से अधिक भारतीय सैन्य प्लेटफॉर्म रूस-निर्मित कोई संयोग नहीं है। यह दशकों के विश्वास का परिणाम है।

बेशक आज दुनिया नए शक्ति-संतुलन की ओर बढ़ रही है। भारत-रूस साझेदारी वैश्विक व्यवस्था की नयी धुरी बन सकती है। दरअसल, अमेरिका के पास ताकत है, पर भरोसा नहीं। चीन के पास महत्वाकांक्षा है, पर संतुलन नहीं। वहीं रूस के पास स्थिरता है और भारत के प्रति सम्मान भी। ऐसे में भारत के लिए सवाल सरल है और निर्णायक भी। क्या भारत अमेरिकी दबाव प्रधान एकध्रुवीय व्यवस्था का हिस्सा बनेगा या रूस के साथ मिलकर उभरती बहुध्रुवीय दुनिया का महत्वपूर्ण स्तंभ ? लेकिन हकीकत यही है कि भारत के हित, इतिहास और सुरक्षा, तीनों का उत्तर एक ही दिशा दिखाता है। भारत-रूस साझेदारी भारतीय सामरिक स्वायत्तता का आज भी सबसे विश्वसनीय कवच है। और यह संबंध जितना मजबूत होगा, भारत उतना ही स्वतंत्र, उतना ही सुरक्षित, और उतनी ही शक्तिशाली बनकर वैश्विक मंच पर खड़ा होगा।