MUNGER (MR) : मुंगेर का हवेली खड़गपुर इतिहास के साथ ही कला-साहित्य से लेकर राजनीति में भी धनी रहा है। राजा संग्राम सिंह, दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह से लेकर आचार्य नंदलाल बसु, राम प्रसाद साधक, श्री बाबू, बनारसी बाबू तक का रिश्ता रहा है। इस धरती से पांडव का भी प्रगाढ़ संबंध रहा है। वरीय पत्रकार राजेश ठाकुर की स्पेशल रिपोर्ट लाइव सिटीज से साभार।
विश्वप्रसिद्ध चित्रकार व अप्रतिम कूची के चितेरे आचार्य नंदलाल बसु की धरती हवेली खड़गपुर में शारदीय नवरात्र की अपनी परंपरा है। इसी परंपरा के तहत आज महाष्टमी पर बुधवार को महागौरी पूजा के लिए मां दुर्गा के पट खुल गए। दुर्गा मंदिरों के साथ ही काली मंदिरों में भी भक्तों की भीड़ उमड़ने लगी है। इसके पहले महासप्तमी की निशा रात्रि में मां की पूजा की जाती हैं।
आंचल में हैं सिमटी हैं कई कहानियां
ऐतिहासिक नगरी हवेली खड़गपुर को पहाड़ों की नगरी भी कहा जाता है। यह अंग प्रदेश का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यहां बिहुला-विषहरी की भी पूजा की अपनी परंपरा है। इतिहास के पन्नों में दर्ज 14 राजाओं की राजधानी रहा यह शहर आज भी अतीत की कई कहानियां अपने आंचल में समेटे हुए है।
आज भी चीखती है हा-हा पंचकुमारी
अंतिम हिंदू राजा संग्राम सिंह के पराक्रम की गाथा हो अथवा उनकी वीरांगना रानी ज्योतिर्मयी के संघर्ष की दास्तां, यह किसी दस्तावेज से कम नहीं। उस समय के आतताइयों से खुद और अपनी पांचों बेटियों की आबरू बचाने को जान दे दी। पहाड़ियों की गोद में बसे रामेश्वर कुंड और भौंरा कुंड जाने के रास्ते में ‘हा-हा पंचकुमारी’ आज भी चीख-चीख कर अपनी पीड़ा कह रही है। लेकिन पहाड़ की वादियों में उनकी दर्द भरी सदाओं को सुनने वाला कोई नहीं है। मुंगेर गजेटियर में भी जिक्र है। पांच दशक पहले तक हवेली खड़गपुर के अंतिम मुस्लिम राजा के वंशज टमटम (तांगा) चलाते दिखते थे।
इतिहासकार बुकानन ने भी चलायी कलम
पहाड़ों की नगरी इस मायने में, कि रामेश्वर कुंड और भौंरा कुंड ही नहीं, और भी कई जलस्रोत हैं। सबसे बड़ा तो भीम बांध और खड़गपुर झील है। इतिहासकार बुकानन ने इन दोनों पर्यटन स्थलों पर अपनी कलम चलायी है। खड़गपुर झील को स्विटजरलैंड की किलनरी झील से श्रेष्ठ बताया है। खड़गपुर झील को दरभंगा महाराज रामेश्वर सिंह ने 1875 के आसपास बनवाया था। इसके दोनों ओर से उत्तरी और दक्षिणी हिस्से में नहरों की लंबी धारा थी। झील का पानी अंतिम खेत तक पहुंच जाती थी। यही कारण था कि 1967 के अकाल में भी हवेली खड़गपुर में फसलों की पैदावार अच्छी रही। लेकिन यहां की नहरें भी अब इतिहास बन गयी हैं। सारा कैनाल सिस्टम कब का ध्वस्त हो चुका है। घोड़ाखूर, तितलपनिया, राजा रानी तालाब, छोटकी हथिया, बड़की हथिया जैसे कई जीवंत नाम है इतिहास के पन्नों में, बस झांकने की जरूरत है।
पौराणिक काल से लेकर कलियुगी काल तक
मुंगेर-जमुई मुख्य मार्ग पर हवेली खड़गपुर की सीमा में अवस्थित भीम बांध पौराणिक काल से लेकर इस कलियुगी काल में भी अपनी विशिष्टता कायम रखे हुए है। किंवदंती है कि महाभारत काल में पांडव के अज्ञातवास के दौरान भीम ने इसी स्थल पर शरण लिया था। हिडिंबा से प्रेमलाप के बाद उसके भाई हिडिंब के विरोध के बाद भी भीम ने उससे शादी रचायी। घटोत्कच का जन्म हुआ। महाभारत की लड़ाई में घटोत्कच की क्या भूमिका रही, इसे पूरा भारत जानता है। भीम बांध बिहार, शायद देश का इकलौता पर्यटन स्थल है, जहां गरम पानी की बहती हुई नदी है। कालांतर में ये शुरू में नक्सलियों का रैन बसेरा बना, बाद में कर्मभूमि। हालांकि, अब प्रकोप कम हुआ है।
साहित्य, कला व राजनीति की भी उर्वरा भूमि
साहित्य, कला व राजनीति की भी उर्वरा भूमि रहा है हवेली खड़गपुर। मास्टर मोशाय के नाम से पूरे विश्व में ख्यातिलब्ध हैं नंदलाल बसु। गांव में प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद पश्चिम बंगाल के शांति निकेतन चले गए और कला की दुनिया में ऐसे रचे-बसे कि पूरे जहां के हो गए। राम प्रसाद साधक भी इसी शहर के थे। राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य गुरु थे साधक जी। दिनकर ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है। और राजनीति में भी हवेली खड़गपुर ने इतिहास रचने का काम किया। श्रीकृष्ण सिंह के रूप में बिहार को पहला सीएम और बनारसी सिंह के रूप में मुंगेर को पहला सांसद इसी धरती ने दिया। इतना ही नहीं, जब चंद्रशेखर सिंह सूबे के मुख्यमंत्री थे, तब जाड़े के मौसम में वे हर माह कबिनेट की एक बैठक भीम बांध में ही करते थे।
मां दुर्गा के साथ मां काली की भी पूजा
बहरहाल, राजा कर्ण की इस धरती पर आज महाष्टमी को मां भवानी के पट खुल गए। शहरी क्षेत्रों में हर साल की तरह इस साल भी मां की दर्जन भर प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित की गयी हैं। बड़ी दुर्गा महारानी, विषहरी स्थान, कुलकुला स्थान, हटिया, रमनकाबाद, नहर, तेघडा़ आदि स्थानों में मां के दर्शन को उमड़ रहे हैं लोग। मां दुर्गा के बीच मुलुकटांड और भैयाराम टोला में मां काली की प्रतिमाएं स्थापित की गयी हैं। इन दोनों स्थानों पर दुर्गा पूजा में काली पूजा की सदियों से परंपरा चली आ रही हैं, आज भी कायम है। और हां, यहां का घोषपुर व तेघडा़ गांव जंग-ए-आजादी के दीवानों का सेंटर और शेल्टर दोनों था।