DELHI (SMR) : 3 दिसंबर को एक ऐसे क्रांतिकारी की जयंती है, जिन्होंने महज 19 साल की छोटी-सी उम्र में हंसते-हंसते फांसी के तख्ते को चूम लिया था। कहते हैं एक युवा के साहस के आगे ब्रिटिश हुकूमत के पसीने छूट गए थे। महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस जिनका जन्म भले बंगाल में हुआ था, लेकिन उनकी कर्मभूमि थी बिहार। जयंती पर वरीय पत्रकार राजेश कुमार ने उनके जीवन को रेखांकित किया है। यह आलेख उनके सोशल मीडिया अकाउंट से अक्षरशः लिया गया है। इस आलेख में उनके निजी विचार हैं।
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के बहुवैनी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम था बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस और माता का नाम था लक्ष्मीप्रिया। खुदीराम 9वीं तक पढ़ाई करने के बाद स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े और स्कूल छोड़ने के बाद रिवोल्यूशनरी पार्टी के मेंबर बने।
मिदनापुर में ‘युगांतर’नाम की एक क्रांतिकारी संस्था चलती थी, जिसमें खुदीराम बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। 1905 में जब लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो विरोध करने वाले को कलकत्ता के मजिस्ट्रेट किंग्जफोर्ड ने अमानवीय दंड दिया। यही वजह है कि ब्रिटिश हुक्मरानों ने किंग्जफोर्ड को प्रमोशन देकर मुजफ्फरपुर में सत्र न्यायाधीश बना दिया। युगांतर ने किंग्जफोर्ड को मारने की योजना बनाई इस काम का जिम्मा सौंपा गया खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को।
30 अप्रैल 1908 को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस किंग्जपोर्ड के बंगले के बाहर मुस्तैद हो गए। रात साढ़े 8 बजे के करीब किंग्जफोर्ड की बग्घी आती हुई दिखी, खुदीराम बोस ने बम फेंका। इतिहास के जानकार बताते हैं कि इस बम विस्फोट की आवाज उस रात तीन मील तक सुनाई पड़ी। कुछ दिनों बाद इस धमाके की आवाज इंग्लैंड और यूरोप में भी सुनी गई। हालांकि, उस रात बग्घी में किंग्जफोर्ड नहीं था, दो अंग्रेज महिलाएं थीं। खुदीराम और प्रफुल्ल कुमार दोनों रात भर भागते रहे और 24 किलोमीटर दूर वैनी रेलवे स्टेशन पर जाकर विश्राम किया। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग चुकी थी, वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया। पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मार ली, जबकि खुदीराम पकड़े गए। 11 अगस्त 1908 को खुदीराम खुशी-खुशी फांसी के फंदे पर चढ़ गए। इस घटना के बाद किंग्जफोर्ड ने घबराकर नौकरी छोड़ दी। जिस मजिस्ट्रेट ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई, उन्होंने लिखा है कि ‘खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ रहे थे’।
फांसी के बाद खुदीराम बोस इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसके किनारों पर खुदीराम लिखा रहता था। ये धोती नौजवानों को खूब पसंद आने लगी। आज़ादी की ये जो लाली है उसमें खुदीराम जैसे क्रांतिकारियों का लहू चमक रहा है।